Indian Culture

  भारतीय संस्कृति की गरिमा
 

भारतीय संस्कृति हमारी मानव जाति के विकास का उच्चतम स्तर कही जा सकती है । इसी की परिधि में सारे विश्वराष्ट के विकास के-वसुधैव कुटुम्बकम् के सारे सूत्र आ जाते हैं । हमारी संस्कृति में जन्म के पूर्व से मृत्यु के पश्चात् तक मानवी चेतना को संस्कारित करने का क्रम निर्धारित है । मनुष्य में पशुता के संस्कार उभरने न पायँ, यह इसका एक महत्त्वपूर्ण दायित्व है । भारतीय संस्कृति मानव के विकास का आध्यात्मिक आधार बनाती है और मनुष्य में संत, सुधारक, शहीद की मनोभूमि विकसित कर उसे मनीषी, ऋषि, महामानव, देवदूत स्तर तक विकसित करने की जिम्मेदारी भी अपने कंधों पर लेती है । सदा से ही भारतीय संस्कृति महापुरुषों को जन्म देती आयी है व यही हमारी सबसे बड़ी धरोहर है ।
भारतीय संस्कृति की अन्यान्य विशेषताओं सुख का केन्द्र आंतरिक श्रेष्ठता, अपने साथ कड़ाई, औरों के प्रति उदारता, विश्वहित के लिए स्वार्थो का त्याग, अनीतिपूर्ण नहीं-नीतियुक्त कमाई पारस्परिक सहिष्णुता, स्वच्छता-शुचिता का दैनन्दिन जीवन में पालन, परिवार-व राष्ट के प्रति अपनी नैतिक जिम्मेदारी का परिपालन, अनीति से लड़ने संघर्ष करने का साहस-मन्यु, पितरों की तृप्ति हेतु तथा पर्यावरण संरक्षण हेतु स्थान-स्थान पर वृक्षारोपण कर हरीतिमा विस्तार तथा अवतारवाद का हेतु समझते हुए तदनुसार अपनी भूमिका निर्धारण सभी पक्षों का बड़ा ही तथ्य सम्मत-तर्क विवेचन पूज्यवर ने इसमें प्रस्तुत किया है । 
  • संस्कृति का स्वरूप........   
विश्व की सर्वोत्कृष्टि संस्कृति भारतीय संस्कृति है, यह कोई गर्वोक्ति नहीं अपितु वास्तविकता है । भारतीय संस्कृति को देव संस्कृति कहकर सम्मानित किया गया है । आज जब पूरी संस्कृति पर पाश्चात्य सभ्यता का तेजी से आक्रमण हो रहा है, यह और भी अनिवार्य हो जाता है कि, उसके हर पहलू को जो विज्ञान सम्मत भी है तथा हमारे दैनन्दिन जीवन पर प्रभाव डालने वाला भी, हम जनजन के समक्ष प्रस्तुत करें ताकि हमारी धरोहर-आर्य संस्काति के आधार भूत तत्व नष्ट न होने पायें । भारतीय संस्कृति का विश्व संस्कृति परक स्वरूप तथा उसकी गौरव गरिमा का वर्णन तो इस वाङ्मय के पैंतीसवें खण्ड 'समस्त विश्व को भारत के अजस्र अनुदान' में किया गया है किंतु इस खण्ड में संस्कृति के स्वरूप, मान्यताएँ, कर्म काण्ड-परम्पराएँ-उपासना पद्धतियाँ एवं अंत में इसके सामाजिक पक्ष पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है । इस प्रकार दोनों खण्ड मिलकर एक दूसरे के पूरक बनते हैं । भारतीय संस्कृति हमारी मानव जाति के विकास का उच्चतम स्तर कही जा सकती है । इसी की परिधि में सारे विश्वराष्ट के विकास के-वसुधैव कुटुम्बकम् के सारे सूत्र आ जाते हैं । हमारी संस्कृति में जन्म के पूर्व से मृत्यु के पश्चात् तक मानवी चेतना को संस्कारित करने का क्रम निर्धारित है । मनुष्य में पशुता के संस्कार उभरने न पायँ, यह इसका एक महत्त्वपूर्ण दायित्व है ।
  • भारतीय संस्कृति का आध्यात्मिक आधार.......



भारतीय संस्कृति की अन्यान्य विशेषताओं सुख का केन्द्र आंतरिक श्रेष्ठता, अपने साथ कड़ाई, औरों के प्रति उदारता, विश्वहित के लिए स्वार्थो का त्याग, अनीतिपूर्ण नहीं-नीतियुक्त कमाई पारस्परिक सहिष्णुता, स्वच्छता-शुचिता का दैनन्दिन जीवन में पालन, परिवार-व राष्ट के प्रति अपनी नैतिक जिम्मेदारी का परिपालन, अनीति से लड़ने संघर्ष करने का साहस-मन्यु, पितरों की तृप्ति हेतु तथा पर्यावरण संरक्षण हेतु स्थान-स्थान पर वृक्षारोपण कर हरीतिमा विस्तार तथा अवतारवाद का हेतु समझते हुए तदनुसार अपनी भूमिका निर्धारण सभी पक्षों का बड़ा ही तथ्य सम्मत-तर्क विवेचन पूज्यवर ने इसमें प्रस्तुत किया है ।
संस्कृति का अर्थ है वह कृति-कार्य पद्धति जो संस्कार संपन्न हो । व्यक्ति की उच्छृंखल मनोवृत्ति पर नियंत्रण स्थापित कर कैसे उसे संस्कारी बनाया जाय यह सारा अधिकार क्षेत्र संस्कृति के मूर्धन्यों का है एवं इसी क्षेत्र पर हमारे ऋषिगणों ने सर्वाधिक ध्यान दिया है । परम पूज्य गुरुदेव ने भारतीय संस्कृति की कुछ मान्यताओं पर बड़ी गहराई से प्रकाश डाला है व प्रत्येक का तथ्य सम्मत विवेचन विज्ञान की-शास्त्रों की सम्मति के साथ प्रस्तुत किया है, पुनर्जन्म में विश्वास, स्वर्ग और नरक कहाँ है, कैसे हैं, ब्राह्मणत्व क्या है-कैसे अर्जित किया जाता है-वर्णाश्रम धर्म परम्परा क्यों व किस रूप में ऋषियों ने स्थापित की, जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष का आधार क्या है तथा आस्तिकता व कमर्फल के सिद्धान्तों को संस्कृति का मूल प्राण क्यों माना जाता है, पूज्यवर ने बड़ी सुगम शैली में यह सब समझाने का प्रयास किया है । आपद धर्म-युगधर्म तथा यज्ञ की व्याख्या भी इसमें सशक्त रूप में आयी है । यधपि ये सभी विस्तार से अलग-अलग खण्डों में भी प्रसंगानुसार आये हैं, किंतु यहाँ उनका संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में विवेचन है । 
 
*अवतारवाद :
भारतीय संस्कृति अवतारवाद में विश्वास करती है । जब पृथ्वी का पाप-भार बढ़ जाता है, ईश्वर का अवतारअवतार थे, श्रीरामचन्द्र जी बारह कला और श्रीकृष्ण सोलह कला के अवतार माने गए हैं । रावण में भी दस कलाएँ थीं, पर उसमें दस आसुरी प्रवृत्तियाँ भी विकसित थी । अतः उसकी प्रवृत्ति विपरीत दिशा में चलती रही और उससे लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक हुई । सगुण रूप में ईश्वर के साकार स्वरूप का नाम ही अवतार है । र्निगुण निराकार का ध्यान तो सम्भव नहीं है, पर सगुण रूप में आकर वह इस संसार के कार्यों में फिर क्रम और व्यवस्था उत्पन्न करते हैं । हमारा प्रत्येक अवतार सर्व व्यापक चेततना सत्ता का मूर्त रूप है । श्री सुदर्शनसिंह ने लिखा है-
''अवतार शरीर प्रभु का नित्य-विग्रह है । वह न मायिक है और न पाँच भौतिक । उसमें स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीरों का भेद भी नहीं होता । जैसे दीपक की ज्योति में विशुद्ध अग्नि है, दीपक की बत्ती की मोटाई केवल उस अग्नि क आकार का तटस्थ उपादान कारण है, ऐसे ही भगवान का श्री विग्रह शुद्ध सचिदानंदघन हैं । भक्त का भाव, भाव स्तर से उद्भूत है और भाव-बिस्तर नित्य धाम से । भगवान का नित्य-विग्रह कर्मजन्य नहीं है । जीवन की भाँति किसी कर्म का परिणाम नहीं है । वह स्वेच्छामय है, इसी प्रकार भगवानवतार कर्म भी आसक्ति की कामना या वासना के अवतार प्रेरित नहीं है, दिव्य लीला के रुप है । भगवान के अवतार के समय उनके शरीर का बाल्य-कौमारादि रूपों में परिवर्तन दीखता है, वह रूपों के आविर्भाव तथा तिरोभाव के कारण ।''

भगवान का अवतार नीति और धर्म की स्थापना के लिए होता रहा है । जब समाज में पापों, मिथ्याचारों, दूषितवृत्तियों, अन्याय का बाहुल्य को जाता है, तब किसी न किसी रूप में पाप-निवृत्ति के लिए भगवान का स्वरूप प्रकट होता है । वह एक असामान्य प्रतिभाली व्यक्ति के रूप में होता है । उसमें हर प्रकार की शक्ति भरी रहती थी । वह स्वार्थ, लिप्सा के मद को, पाप के पुञ्ज को अपने आत्म-बल से दूर कर देता है । दुराचार, छल कपट, धोखा, भय, अन्याय के वातावरण को दूर कर मनुष्य के हृदय में विराजमान देवत्व की स्थापना करता है। पिता ने अपने पुत्र को, परमात्मा ने आत्मा को, राजा ने राजकुमारों को इसलिए भेजा है कि मेरी सृष्टि की न्यायपूर्ण व्यवस्था रखों । सत्य, प्रेम, विवेक को फैलाकर इस वाटिका को सुरम्य बनाओ पाप, अन्याय और अत्याचार फैला दे । ऐसी अव्यवस्था और अन्याय के समय के लिए शरीर का तीसरा नेत्र सुरक्षित है । जब मनुष्य के शरीर में फोड़े उठते हैं और बढ़ने लगते हैं, तो निर्दय डाक्टर की तरह भगवान चाकू घुसेड़ कर मवाद को निकाल डालना भी जानते है । भले ही रोगी हाय-हाय करता रहे और बेदना से विहृल होकर हाथ-पाँव छटपटावे । तात्पर्य यह है कि ईश्वर अधिक दिन तक जगत में पाप की प्रवृत्ति नहीं देख सकते । कारण आत्मा की अखण्डता ऐसी है कि एक व्यक्ति पापों का फल अन्य व्यक्तियों को भी भोगना पड़ता है । इस प्रकार कुछ व्यक्तियों द्वारा फैलाये हुए पापों का फल सभी सृष्टि को परेशान कर देता है । शेष जीवित प्राणी अनीति के, अत्याचार और आपत्ति के राक्षस के कराल डाढ़ों में फँस जाते है । जगत पिता अपनी सान्त्वनापूर्ण भुजाएँ फैलाकर करुण नेत्रों से संदेश देते हुए मानों कह उठते हैं-''पुत्रों! इस अत्याचारी को दण्ड देकर तो मैं दूर किए देता हूँ, पर भविष्य में कभी ऐस भूल मत करना । तुम्हें इस पृथ्वी पर, संसार में सत्य, प्रेम और न्याय के सुमधुर फल चखने के लिए भेजा गया है, न कि इस सुरम्य वाटिका में दुराचार, छल, कपट, धोखा, अन्याय की आग लागने के लिए । शैतान के पंजे से सावधान रहना । दण्ड सहकर तुम्हारे पास संस्कार निवृत्त हो गये हैं । अब अपने र्कत्तव्य धर्म को समझो । तुम भोग-विलास या काम-वासना रत कीड़े नहीं हो, पवित्र निष्कंलक सात्विक प्रवृत्ति का आत्मा हो, निर्विकार हो । इन्द्रिय लालसा के लिए कदम मत बनाना । पिछली भूलों का प्रायश्चित करो और नवीन सतयुग का निर्माण करो ।''

इस प्रकार हिन्दू अवतार का सत्य स्वरूप यह है कि आप दंडित हो । दुराचार, छल-कपट से मनुष्य बचते रहें । उन पर दंडित होने का आतंक छाया रहे । मनुष्यता शोधत होकर, अपने विकार छोड़कर र्कत्तव्य धर्म पर आरूढ़ होती रहे । प्रभु का न्याय, सत्य विवेक और प्रेम का संतुलन ठीक बना रहे । अवतार के बाद सतयुग का आरंभ होता है । निर्विकार आत्माओं को राज्य छा जाता है । दुराचार का वायुमण्डल समाप्त हो जाता है और उज्ज्वल भविष्य दृष्टिगत होने लगता है ।
  • भारतीय संस्कृति की मान्यताएँ........ 
मूतिर्पूजा-प्रतीकों की उपासना के पीछे क्या वैज्ञानिकता है तथा शिखा-सूत्र, तिलक-माला आदि के पीछे क्या रहस्य छिपे पड़े हैं जो हमारे ऋषियों ने उन्हें इतना महत्व दिया, यह विवेचन पाठकगण इसमें पढ़ सकेंगे । षोड़ष संस्कारों से लेकर पर्व त्योहारों तक तथा तीर्थ यात्राओं, मेलों से लेकर कथा पारायण तक देवसंस्कृति का विस्तृत फैलाव है । इन सभी के स्वरूप को एक पाठक को जैसे प्रारंभिक कक्षा के छात्र को पढ़ाया जाता है, पूज्यवर ने समझाया है । बहुदेव वाद क्या है- हमें इसके माध्यम से एक पर ब्रह्म की उपासना के मार्ग तक कैसे पहुँचाना है, यह समग्र तत्त्व दशर्न तथा श्राद्ध-तपर्ण आदि मान्यताओं की वैज्ञानिक व्याख्या भी इस में है ।

अंतिम अध्याय में पूज्यवर ने चारों वर्णओ व चारों आश्रमों के विभन्न पक्षों को विस्तार से लिखा है । वाणार्श्रम पद्धति हमारी संस्कृति की विशेषता है एवं समाज की सुव्यवस्था की एक सुदृढ़ आधार शिला है । आज इस संबंध में अनेकानेक भ्रान्तियाँ फैला दी गयी हैं पर वस्तुतः यह सारी विधि व्यवस्था मानवी जीवन को व उसकी सामाजिक जिम्मेदारियों को एक निधार्रित क्रम में बाँधने के लिए बनी थीं । इसी सामाजिक पक्ष में संस्कृति के खान-पान, जाति-पाँति, ऊँच-नीच, भाषा वेश, गुण-कर्म-स्वाभाव की परिष्काति से समाज की आराधना जैसे अनेकानेक पक्ष आ जाते हैं इनका वणर्न विस्तार से हुआ है । गुरु, गायत्री, गंगा, गौ व गीता ये पाँच हमारी संस्कृति के महत्त्वपूर्ण आधारस्तम्भ माने जाते हैं । इनके प्रति श्रद्धा रख हम अपनी सांस्कृतिक गौरव गरिमा का अभवधर्न करते हैं एवं इनके माध्यम से अनेकानेक अनुदान भी दैनन्दिन जीवन में पाते हैं । 
*पुनर्जन्म में विश्वास:

भारतीय संस्कृति यह मानती है कि मृत्यु से जीवन का अन्त नहीं होता, जीव नाना योनियों में जन्म लेता है । चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के पश्चात् जीव मनुष्य जैसे दुर्लभ शरीर को प्राप्त करता है । योनियों में क्रमशः विकासवाद के सिद्धांत का पालन किया जाता है । अर्थात् स्वेदज, उद्भिज, अन्डज, जरायुज क्रमशः एक के बाद दूसरी कक्षा की योग्यता और शक्ति बढ़ती जाती है । स्वेदज जीव में जितना ज्ञान और विचार है, उसकी अपेक्षा उद्भिजों की योग्यता बढ़ी हुई है । इसी प्रकार योग्यता बढ़ते-बढ़ते शरीरों की बनावटी में भी अन्तर होने लगता है और पूर्ण उन्नति एवं विकास होने पर मानव शरीर प्राप्त हो जाता है । मनुष्य योनि इस संसार की सर्वश्रेष्ठ योनि है । अन्ततः इसी जीव नीचे से ऊपर की ओर या तुच्छता से महानता के ओर लगातार बढ़ते चले आ रहे हैं । आत्मवादी तो यह मानते हें कि आत्मा ही बढ़ते-बढ़ते परमात्मा हो जाती है ।
इस मान्यता की धुरी नैतिकता में रखी गई है जिससे समाज तथा व्यक्ति दोनों को ही लाभ होता है । इस मान्यता में विश्वास करने वाला व्यक्ति यह मानता है कि 'मेरी जैसी ही आत्मा सबकी है और सबकी जैसी ही मेरी आत्मा है ।' इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि ''मेरी आत्मा की अवस्था भूतकाल में अन्य जीवों जैसी हुई है और भविष्य में भी हो सकती है । सभी जीव किसी न किसी समय मेरे-माता-पिता आदि सम्बंधी रहे हैं और भविष्य में भी रह सकते हैं ।''
इस प्रकार इस मान्यता से मनुष्य का सब जीवों के प्रति प्रेम और भ्रातृत्व भाव बढ़ता है । हम एक-दूसरे के समीप आते हैं इससे यह भी स्पष्ट होता है कि जीव की कोई योनि शाश्वत नहीं है । हिन्दू धर्म के अनुसार परलोक में अननतकालीन स्वर्ग या अनन्तकालीन नरक नहीं है, जीव के किसी जन्म या किन्हीं जन्मों के पुण्य या पापों में ऐसी शक्ति नहीं है कि सदा के लिए उस जीव या भाग्य निश्चित कर दे । वह पुरुषार्थ से सुपथगामी होकर आत्म-उन्नत अवस्था को प्राप्त कर सकता है । 


*कर्मफल का सिद्धांत: 
भारतीय संस्कृति कर्मफल में विश्वास करती है । हमारे यहाँ कर्म की गति पर गहन विचार किया गया है और बताया गया है कि जो कुछ फल प्राप्त होता है, वह अपने कर्म के ही कारण होता हैः-

मनुष्याः कर्मलक्षणः म.भा. अश्वमेघ पर्व 43-21
अर्थात् मनुष्य का लक्षण कर्म ही है । मनुष्य को कर्म करना चाहिए । कर्म करते हुए ही वह मनुष्य बनता है ।

स्वकर्म निरतो यो हि स यशः प्राप्नुयान्महत् । महाभारत व.प.212-16
जो अपने कर्म में संलग्न है, वही बड़े भारी यश को प्राप्त करता है ।

ध्रुव न नाशोऽस्तिकृतस्य लोके (महाभारत व.प. 237-27)
संसार में किये हुए कर्म का कभी नाश नहीं होता ।

भारतीय संस्कृति में चित्रगुप्त की कल्पना की गई है, जो पल-पल में मनुष्य की अच्छे-बुरे कर्मों का लेखा-जोखा करता रहता है । मृत्यु के उपरांत शुभ-अशुभ कर्मों के बल पर उसे स्वर्ग या नर्क में जाना होता है । इस अलंकारिक कथन गहरी सत्यता है । गुप्त मन में हमारे सभी शुभ-अशुभ कार्यों की सूक्ष्म रेखाएँ अंकित होती रहती है । ये ही हमारी कर्म रेखा का निर्माण करती हैं । कहा गया है कर्म की रेखाएँ बिना फल दिये नहीं रहती । पाप पुण्य के सभी कर्मों का फल अवश्य देर सवेर मिलता है ।
कर्मों की तीन श्रेणियाँ मानी गई हैं- 1.संचित, 2. प्रारब्ध, 3.क्रियमाण । इन तीनों प्रकार के कार्मों का संचय निरन्तर हमारी संस्कार भूमिका में होता रहता है । मनुष्य की अन्तशचेतना ऐसी निष्पक्ष, निर्मल, न्यायशील और विवेकवान योजना है जो अपने-पराये का भेद न कर सत्यनिष्ठ न्यायधीश की तरह भले-बुरे कार्य का विवरण अंकित करती रहती है ।
प्रारब्ध उन मानसिक संचित कर्मों को कहते हैं, जो स्वेच्छापूर्वक जानबूझकर तीव्र भावनाओं से प्रेरित होकर विशेष मनोयोग से किए जाते है । इसलिए इनके संस्कार बहुत बलवान होते है । कर्म का परिपाक लेकर जब फल बनता है तब वह प्रारब्ध कहा जाता है । साधारण कार्य तदवीर है । संचित कर्मों का फल मिलना संदिग्ध है, विरोधी परिस्थितियों से टकराकर वे नष्ट हो जाते हैं ।
क्रियमाण कर्म शारीरिक हैं, जिनका फल प्रायः साथ-साथ ही मिलता रहता है । जिन शारीरिक कर्मों के पीछे कोई मानसिक गुत्थी नहीं होती केवल शरीर द्वारा शरीर के लिए ही किए जाते हैं, वे क्रियमाण कहलाते हैं ।
स प्रकार सब कर्मों का फल अवश्य मिलता है । कितने समय और कितने दिनों में फल प्राप्त होगा, इसके सम्बंध में कुछ नियत मर्यादा नहीं है । कर्म-फल आज, कल, परसों या जन्मों के अन्तर से भी मिल सकता है, किन्तु व मिलेगा अवश्य । यह निश्चय है । पुरुषार्थ की अवहेलना से जो असफलता मिलती है, उसे कदापि प्रारब्ध फल नही कहा जा सकता । कष्टों का स्वरूप अप्रिय अवश्य है, उनका तात्कालिक फल कटु होता है, पर ईश्वर की लीला ऐसी है कि अन्ततः वे जीव के लिए कल्याणकर और आनन्ददायी सिद्ध होते हैं ।
भारतीय संस्कृति यह मानती है कि संसार में सत, रज, तम तीनों का मिश्रण है, तीनों प्रकार की वस्तुएँ मोजूद हैं । स्वयं अपने स्वभाव, रुचि और गुणों के अनुसार हम वैसी ही वस्तुएँ प्रकृति से एकत्रित कर लेते हैं । अच्छाई, बुराई, कालापन, सफेदी, धर्म, अधर्म, पाप, पुण्य, सुख, दुःख आदि सब संसार में बिखरे पड़े हैं । अपने स्वभावनुकूल तत्वों को प्रकृति से स्वतः खींच लेता है । अपनी मनोभावनाओं, रूचियों, गुप्त इच्छाओं को मनुष्य आमने-सामने वालों पर थोप देता है और उन्हें वैसा ही समझता है जैसा कि वह स्वयं है । हर उन्नत आत्मा का यह कर्तव्य है कि वह स्वयं आत्म-विकास करे, समाज से तमोगुण दूर करे, पापवृत्तियों को रोके और अच्छाइयों का, धर्म का, नीति और सत्य का प्रसार करे । अपने शुभ कर्मों द्वारा स्वयं उठे और साथ ही अपने आस-पास पवित्रता, उदारता, प्रेम, भ्रातृभाव, स्नेह, दया, गुण-दर्शन का वातावरण तैयार कर ले ।
*आस्तिकता: 
भारतीय संस्कृति ईश्वर की सत्ता में अखण्ड विश्वास करती है । ईश्वर सर्वव्यापक है, यह मान्यता हिन्दू-धर्म का आधार रूप है ।

''ब्रह्मैवदममृतं पुरस्ताब्रह्म दक्षिणतश्चोत्तेरण ।
अधर्श्चाध्व च प्रसृतं ब्रह्मैवेदं विर्श्वामदं वरिष्ठान॥''
(मुण्डक २-२-११)
अर्थात ''वह अमृत स्वरूप परब्रह्म ही सामने है । ब्रह्म ही पीछे है, ब्रह्म ही दायीं ओर तथा बायीं ओर, नीचे की ओर तथा ऊपर की ओर भी फैला हुआ है । यह जो सम्पूर्ण जगत् है, वह सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म ही है ।''
हम जानते हैं कि परब्रह्म महान् परमात्मा दिव्य और अचिन्त्य स्वरूप है । वह सूक्ष्म में भी अत्यंत दूर है । इस शरीर में रहकर भी अति समीप है, यहाँ देखने वालों के भीतर ही उनकी हृदय रूपी गुफा है । जिस प्रकार बहती हुई निदियाँ नामरूप को छोड़ कर समुद्र में विलीन हो जाती है, वैसे ही ज्ञानी, महात्मा नामरूप से रहित होकर उत्तम से उत्तम दिव्य परम पुरुष परमात्मा को प्राप्त हो जाता है । कहा गया है किः-

''यस्यांतः सर्वमदच्युतस्यालयात्मनः ।
तमाराधय गोविंदं स्थानमग्रयं यदीच्छसि॥''
(विष्णु पुराण १-११-४५)
अर्थात् ''यदि तू श्रेष्ठ स्थान का इच्छुक है, तो जिन अविनाशी अच्युत में यह सम्पूर्ण जगत् ओत-प्रोत है, उन गोविन्द की ही आराधना कर ।''

तात्यपर्य यह कि भारतीय संस्कृति मानव-जीवन का साफल्य आस्तिक्य में ही मानती है । मनुष्य की उन्नति के लिए यह भावना आवश्यक भी है । वह अन्य प्राणियों के प्रति अत्याचार और स्वयं अपने बन्धु-बान्धवों के प्रति नृशंसता करना तब ही छोड़ सकता है, जबकि वह मनुष्य की सत्ता की अपेक्षा अन्य उच्चतर दृढ़तर शक्तिवान् शासन को स्वीकार करे ।

मनोविज्ञान का यह अटल सत्य है कि भय से प्राणी सन्मार्ग के निकट रहता है । उसे सदा मन ही मन यह गुप्त भय रहता है कि यदि मैं कोई गलती करूँग, पाप-मार्ग पर जाऊँगा, किसी के ऊपर अन्याय, अत्याचार इत्यादि करूँगा, तो मुझे सजा मिलेगी । हमारे पाप, अन्याय, अत्याचार या नृशंसता की रोक करने वाली सत्ता का नाम ईश्वर है । हम यह समझते हैं कि पाप-मार्ग पर चलने से हमें नर्क की यातनाएँ भोगनी होंगी । इसलिए हम उत्तम मार्ग न छोड़कर नीच वृत्ति से सदा बचे रहते हैं । आस्तिक्य वह शक्ति है, जो हमें पाप कर्म की ओर जाने से रोकती है । दीनों, अनाथों, गरीबों के प्रति अनादर पीड़ा पहुँचाने से बचाती है । यदि यह भावना न हो, तो पापियों की संख्या और भी बढ़ जायेगी, जो अच्छी वृत्तियों वाले लोगों को भी पापों में धकेल कर इस पृथ्वी का सर्वनाश कर देंगे ।

ईश्वर में विश्वास हमारे समाज के लिए कवच का काम करता है । जो दुष्ट विश्वासघाती हैं, व्रत का उल्लंघन करते है, समाज के द्वेषी हैं, वे इसी भाव से डरकर पाप कर्मों से बचते हैं ।
भारतीय संस्कृति यह मानती है कि ईश्वर शक्तिशाली है । असंख्य नेत्रों से हमें और हमारे कार्यों,गुप्त मन्तव्यों, बुरी भावनाओं, झूठ, कपट, मिथ्या को देखते हैं ओर नाना रूपों में हमें उसकी सजा देते हैं । अतः हमें नीच वृत्तियों से बचना चाहिए ।

एक विद्वान् के शब्दों में हम यों कह सकते हैं:-
''भय से प्राणी सन्मार्ग के समीप रहता है । मानवी सभ्यता को उचित मार्ग पर बनाये रखने के लिए यह जरूरी है कि वह प्राणि-सत्ता से अधिक किसी विशेष बलशाली की सत्ता को स्वीकृत करे । उसके प्रति आदर की भावना हो । उसकी दया के लिए सदैव लालायित रहे; उसके कोपभाजन होने का भय ही मनुष्य को सन्मार्ग-गामी बनाकर उसे र्कत्तव्य पर स्थिर रख सकता है । मनुष्य की ऐसी धारण ही उसे मनुष्य बनाये रखती है । यदि मनुष्य अपने को ही सर्वस्व मान ले तो अहम्मन्यता के कारण मानवता लुप्त होकर दानवता का ताण्डव प्रारम्भ हो जाता है । इसलिए आवश्यक है कि हम अपने ऊपर किसी के अस्तित्व को स्वीकार करें । मानव-जीवन का सर्वोत्कृष्ट साफल्य और बाहुमूल्य निधि आस्तिक्य का यही मूल स्रोत है । ''
*बहुदेववाद:

हिन्दू धर्म पर एक सबसे बड़ा आक्ष्ोप यह लगाया जाता रहा है कि इसमें अनगिनत देवी-देवता हैं । इतना पुराना धर्म होते हुए भी इनमें इस बात पर सहमति नहीं है कि किसे मानें, किसे न मानें? वैदिक काल से लेकर पुराणों तक तथा अवतारी लीला पुरुषों तक अनगिनत आराध्य इष्ट हिन्दुओं के हैं व इनका कोई एक सनातन धर्म नहीं है, कोई एक ईश्वर नहीं है । ऐसा दोषारोपण प्रायः वे लोग करते हैं जो तथ्यों से अवगत न होने के कारण देव संसकृति का मात्र बहिरंग पक्ष ही देखकर अपना मत बना लेते हैं ।
उर्पयुक्त आक्षेप के उत्तर में एकेश्वरवाद बहुदेववाद की व्याख्या से भ्रान्तियों का वह कुहासा मिटाने का हम प्रयास करेंगे जो सनातन धर्म पर छाया दिखाई पड़ता है, पर वैसा नहीं है । अपूर्ण जानकारी के कारण भारतीय संस्कृति के आधार पर ही जीवन वृत्ति चलाने वाले धर्मोंपदेशक भी अन्यान्य मतावलम्बियों के साथ हाँ में हाँ मिलाते देखे गये हैं । कि हिन्दू धर्म में देवी-देवता तो बहुत हैं व यही एक इसकी बड़ी कमी हैं । इनके प्रत्युत्तर पर हँसी भी आती है व इस विडम्बना पर दुःख भी होता है । क्रान्तिदर्शी चिन्तक स्तर के ऋषिगण क्या इतने अदूरदर्शी थे कि वे भगवान का स्वरूप बनाते समय सही ढंग से चिन्तन नहीं कर पाए? आखिर यह कल्पना हमारे मन में आई कैसे?
इस संबंध में ऋग्वेद का एक मंत्र हमारा चिन्तन स्पष्ट करता है । ऋषि उसमें कहते हैं-
इंन्द्र मित्रं वरुणमग्निमा हुथो दिव्यः स सुपण्र्ााें गरुत्मान ।
एकं सद्विपा बहुधा वदन्ति अग्निं यमं मातरिश्वान माहुः॥


अर्थात् ''एक सत्स्वरूप परमेश्वर को बुद्धिमान ज्ञानी लोग अनेक प्रकारों से अनेक नामों से पुकारते हैं । उसी को वे अग्नि, यम, मातरिश्वा, इन्द्र, मित्र, वरुण, दिव्य, सुपर्ण, गरुत्मान इत्यादि नामों से याद करते हैं, सारा वैदिक वाङ्मय इसी प्रकार की घोषणाओं से भरा है, जिसमें एक ही सद्घन, चिद्घन और आनंदघन तत्त्व को मूलतः स्वीकार करके उसी के अनेक रूपों के रूप में ईश्वर को मान्यता दी गयी है ।
विश्व के समस्त नाना प्रकार के रूपों में उसी एक का साक्षात्कार किया गया है । एक प्रकार से एकत्व में अनेकत्व तथा अनेकत्व में एकत्व, यह एक निराले प्रकार का दर्शन भारतीय संस्कृति का है, जो कहीं और देखने को नहीं मिलता । जब अधिकार भेद से आराध्य रूप भी विविध हो जाते हैं तो दार्शनिक चकराकर हिन्दुओं को बहुदेववादी (पालीथीस्टीक) ठहरा देते हैं वे कहते हैं कि संभवतः हिन्दू सभ्यता एक ईश्वर की सत्ता से अनभिज्ञ थी । जबकि एक ही सत्य, एक ही चिन्मय सत्ता की स्वीकृति ''भारतीय अध्यात्म स्थान-स्थान पर देता आया है ।''
मैक्समूलर कहते हैं कि वैदिक काल के ऋषि बड़े विद्वान थे । विभिन्न देवताओं के रूप में ऋषियों ने परमेश्वर की विभिन्न शक्तिधाराओं की गुण रूप में चर्चा करके उनकी महिमा का बखान किया है । मैक्समूलर ने वेदों में हेनीथीइज्म या उपास्य श्रेष्ठतावाद का प्रतिपादन किया जिसे बाद के अध्येयताओं ने अलग-अलग ढंग से समझकर उसकी व्याख्या की । ''एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति'' स्वर जितनी बार हमारे समक्ष गूँजता है, हर बार एक महान प्रेरणा व संजीवनी हमें मिलती है, उस एक ईश्वरीय सत्ता के बारे में जिसे विभिन्न संप्रदाय विभिन्न मत अलग-अलग नामों से जानते हैं पर वैदिक आधार पर वह एक ही है ।
देव संस्कृति की यह महानता है कि यहाँ विचार स्वातंत्र्य को बौद्धिक प्रजातंत्र को, प्रधानता मिली । यहाँ आस्तिक भी पनपते हैं तथाकथित नास्तिक भी । यहाँ चार्वाकवाद, जैनों का शून्यवाद भी वैसा ही सम्मान पाता है जैसा त्रेतवाद, द्वैतवाद तथा अद्वैतवाद । ईश्वर के स्वरूप व कल्पना के लिए पूरी छूट दे दी गयी है । माना यह गया है कि अंतः व्यक्ति नीतिमत्ता को मानेगा परमसत्ता के अनुशासन को मानेगा व जीवन में ईश्वरीय तत्त्वदर्शन को उतारेगा । चाहे किसी का भी नाम ले, बनेगा तो वह ईश्वरीयपरायण । यही कारण है कि इस्लाम, ईसाई धर्म यहाँ की उर्वर भूमि में भली-भाँति पनपते गए जब कि अपनी जन्मभूमि छोड़कर अन्य स्थानों पर उन्हें संघर्ष हिंसा द्वारा, अपना प्रचार करना पड़ा ।
आदि पुरुष की कल्पना जिन ऋषियों ने की, ''कस्मै देवाय हविषा विधेम'' का उत्तर जिन्होंने एक ही विश्वाधार के विभिन्न रूपों के रूप में दिया, उनके निर्धारणों पर उँगली उठाना कुतर्की, विवदों में उलझने वाले नास्तिकों का काम है । बहुदेववाद में एकेश्वरवार का अर्थ है परमसत्ता की विभिन्न रूप रश्मियों में उस एक ही सत्ता का दर्शन करना । यदि यह हो सके तो आस्तिकवादी मान्याताओं का विस्तार हो आस्था संकट से मोर्चा भली-भाँति लिया जा सकता है । आज की धर्म संप्रदायगत विद्वेष की स्थिति में हिन्दू अध्यात्म व देव संस्कृति ही एकमात्र समाधान है, इसमें कोई संशय नहीं ।

 *स्वर्ग और नर्क:
 भारतीय संस्कृति में स्वर्ग और नर्क का विधान है । शुभ कार्यों से स्वर्ग और निंद्य कार्यों, दुराचरण, पाप आदि से नर्क की कठोर यातनाएँ भगतनी पड़ती हैं- हम यह मानते आये हैं । स्वर्ग को नाना नामों से पुकारा गया है ।
‍इसका एक नाम ब्रह्मलोक भी है कहा गया हैः-
''तेषां में वैष ब्रह्मलोको येषां, तपो ब्रह्मचर्य येषु सत्यं प्रतिष्ठितम् ।''
जिनमें तप ब्रह्मचर्य है, सत्य प्रतिष्ठित है, उन्हें ब्रह्मलोक मिलता है । जिनमें न तो कुटिलता है और न मिथ्या आचरण है और न कपट है, उन्हीं को विशुद्ध ब्रह्मलोक मिलता है ।

जिस मानव में आशंका, दुःख, चिन्ता, भय, कष्ट, क्षोभ और निरुत्साह है, भोग- विलास और तृष्ण है वही नकर है जो धर्म-पालन, ईश्वर की सत्ता से विमुख है नास्तिक है, वह नरक में जाते हैं । नष्ट हो जाते हैं । काम, क्रोध, लोभ, मोह ये चारों नर्क के द्वार हैं । इनमें से किसी के भी वश में पड़ जाने पर नर्क में पड़ा हुआ समझना चाहिए । अशुभ वासनाओं के भ्रम-जाल में पड़कर मनुष्य दारुण नर्क की यन्त्रणा में फँस सकता है । अन्य प्राणी तो क्षुधा और वासनाओं के जंजाल में बँधे हुए वासना-तृप्ति में ही जीवन नष्ट कर रहे हैं । वे नवीन कर्मों के द्वारा अपने को समुन्नत करने का प्रयत्न नहीं करते, पर मनुष्य कर्मयोनि में रहकर नये संस्कारों का उपार्जन करने वाला प्राणी है । उसके सामने दो मार्ग हैं, एक तो बन्धन या नरक का और दूसरा मोक्ष या स्वर्ग का । संसार के भोगों में फँस हुआ मानव नर्क में ही पड़ा हुआ है । इसके विपरीत, सत्संग, परोपकार, शुभ कार्य, समाज-सेवा, आत्म-सुधार द्वारा मनुष्य मोक्ष की ओर अग्रसर होता है ।

जो व्यक्ति शास्त्र-निषिद्ध कर्मों में पाप-प्रवृतियों में लगे रहते हैं, वे बार-बार आसुरी योनि को तथा अधम गति को प्राप्त होते हैं । (गीता १२-२०) विषयासक्ति में पड़े हुए भोगों को लगातार भोगने वाले नर्क में जाते हैं । सांसारिक भोग सुखों की प्राप्ति के साधन रूप सकाम-रूप से भिन्न यथार्थ कल्याण को न जानने वाले व्यक्ति पापों के परिणामस्वरूप हीन योनियों (कीट, पत, शूकर या वृक्ष, पत्थर इत्यादि) में जाते हैं ।

पौराणिक मान्यता यह है कि स्वर्ग और नर्क दो भिन्न-भिन्न लोक है । दण्ड या पुरस्कार प्राप्ति के लिये मनुष्य वहाँ जाता है । वहाँ अपने पुण्य-पाप का पुरस्कार प्राप्त कर जीवन पुनः इस लोक में आता है ।
दूसरी मान्यता यह है कि स्वर्ग और नर्क स्वयं मनुष्य में ही विद्यमान हैं ये उसके मन के दो स्तर हैं मनुष्य के मन में स्वर्ग की स्थिति वह है जिसमें देवत्व के सद्गुणों का पावन प्रकाश होता है । दया, प्रेम, करुणा, सहानुभूति, उदारता की धाराएँ बहती हैं । इस स्थिति में मन स्वतः प्रसन्न रहता है । यही मानसिक मार्ग कल्याणकारी है । अतः इसे स्वर्ग की स्थिति भी कहा जा सकता है । दूसरी मनःस्थिति वह है जिसमें मनुष्य उद्वेग, चिंता, भय, तृष्णा, प्रतिशोध, दम्भ आदि राक्षसी वृत्तियाँ मनुष्य को अन्धकूप में डाल देती हैं । अनुताप और क्लेश की काली और मनहूस मानसिक तस्वीरें चारों ओर दिखाई देती हैं । अन्तर्जगत् यन्त्रणा से व्याकुल रहता है । कुछ भी अच्छा नहीं लगता । शोक, संताप और विलाप की प्रेतों जैसी आकृतियाँ अशान्त रखती हैं । यही नर्क की मनःस्थिति है । इस प्रकार इस जगत् में रहते हुए मानव-जीवन में ही हमें स्वर्ग और नर्क के सुख-दुःख प्राप्त हो जाते हैं । भारतीय संस्कृति के अनुसार सम्भव है कि अपने पवित्र कर्मों द्वारा आपको इसी जगत् में मनःशान्ति, सुख, स्वास्थ्य, संतुलन, इत्यादि प्राप्त हो जाए, या अपने कुकृत्यों द्वारा अशांति, द्वेष, वैर, तृष्णा, लोभ आदि का नर्क मिले ।

  • कर्मकाण्ड, परम्पराएँ, पूजा पद्धति........

यज्ञ-संस्कार आदि कर्मकाण्ड भारतीय ऋषि-मनीषियों द्वारा लम्बी शोध एवं प्रयोग-परीक्षण द्वारा विकसित असामान्य क्रिया-कृत्य हैं । इनके माध्यम से महत् चेतना तथा मानवीय पुरुषार्थ की सूक्ष्म योग साधना को दृश्य-श्रव्य (ऑडियो विजुअल) स्वरूप दिया गया है । इसमें अनुशासनबद्ध स्थूल क्रिया-कलापों के द्वारा अंतरंग की सूक्ष्म शक्तियों को जाग्रत् एवं व्यवस्थित किया जाता है । औषधि निर्माण क्रम में अनेक प्रकार के उपचार करके सामान्य वस्तुओं में औषधि के गुण पैदा कर दिये जाते हैं । मानवीय अंतःकरण में सत्प्रवृत्तियों, सद्भावनाओं, सुसंस्कारों के जागरण, आरोपण, विकास व्यवस्था आदि से लेकर महत् चेतना के वर्चस्व बोध कराने, उनसे जुड़ने, उनके अनुदान ग्रहण करने तक के महत्त्वपूर्ण क्रम में कर्मकाण्डों की अपनी सुनिश्चित उपयोगिता है । इसलिए न तो उनकी उपेक्षा की जानी चाहिए और न उन्हें चिह्न पूजा के रूप में करके सस्ते पुण्य लूटने की बात सोचनी चाहिए । कर्मकाण्ड के क्रिया-कृत्यों को ही सब कुछ मान बैठना या उन्हें एकदम निरर्थक मान लेना, दोनों ही हानिकारक हैं । उनकी सीमा भी समझें, लेकिन महत्त्व भी न भूलें । संक्षिप्त करें, पर श्रद्धासिक्त मनोभूमि के साथ ही करें, तभी वह प्रभावशाली बनेगा और उसका उद्देश्य पूरा होगा ।
‍ यज्ञादि कर्मकाण्ड द्वारा देव आवाहन, मंत्र प्रयोग, संकल्प एवं सद्भावनाओं की सामूहिक शक्ति से एक ऐसी भट्टी जैसी ऊर्जा पैदा की जाती है, जिसमें मनुष्य की अंतःप्रवृत्तियों तक को गलाकर इच्छित स्वरूप में ढालने की स्थिति में लाया जा सकता है । गलाई के साथ ढलाई के लिए उपयुक्त प्रेरणाओं का संचार भी किया जा सके, तो भाग लेेने वालों में वांछित, हितकारी परिवर्तन बड़ी मात्रा में लाये जा सकते हैं । इस विद्या का यत्किंचित् ही सही, पर ठीक दिशा में प्रयोग करने के कारण ही युग निर्माण अभियान के अंतर्गत सम्पन्न होने वाले यज्ञों में गुण, कर्म, स्वभाव परिवर्तन के संकल्पों के रूप में बड़ी संख्या में जन-जन द्वारा देवदक्षिणाएँ अर्पित की जाती हैं । 
*मूर्तिपूजा:
 मूर्ति-पूजा क्या है? पत्थर, मिट्टी, धातु या चित्र इत्यादि की प्रतिमा को माध्यस्थ बनाकर हम सर्वव्यापी अनन्त शक्तियों और गुणों से सम्पन्न परमात्मा को अपने सम्मुख उपस्थित देखते हैं । निराकार ब्रह्म का मानस चित्र निर्माण करना कष्टसाध्य है । बड़े योगी, विचारक, तत्ववेत्ता सम्भव है यह कठिन कार्य कर दिखायें,किन्तु साधारण जन के जिए तो वह नितांत असम्भव सा है । भावुक भक्तों, विशेषतः नारी उपासको ं के लिए किसी प्रकार की मूर्ति का आधार रहने से उपासना में बड़ी सहायता मिलती है । मानस चिन्तन और एकताग्रता की सुविधा को ध्यान में रखते हुए प्रतीक रूप में मूर्ति-पूजा की योजना बनी है । साधक अपनी श्रद्धा के अनुसार भगवान की कोई भी मूर्ति चुन लेता है और साधना अन्तःचेतना ऐसा अनुभव करती है मानो साक्षात् भगवान से हमारा मिलन हो रहा है ।
मनीषियों का यह कथन सत्य हे कि इस प्रकार की मूर्ति-पूजा में भावना प्रधान और प्रतिमा गौण है, तो भी प्रतिमा को ही यह श्रेय देना पड़ेगा कि वह भगवान की भावनाओं का उदे्रक और संचार विशेष रूप से हमारे अन्तःकरण में करती है । यों कोई चाहे, तो चाहे जब जहाँ भगवान को स्मरण कर सकता है, पर मन्दिर में जाकर प्रभु-प्रतिमा के सम्मुख अनायास ही जो आनंद प्राप्त होता है, वह बिना मन्दिर में जाये, चाहे, जब कठिनता से ही प्राप्त होगा । गंगा-तट पर बैठकर ईश्वरीय शक्तियों का जो चमत्कार मन में उत्पन्न होता है, वह अन्यत्र मुश्किल से ही हो सकता है ।
*व्रत और त्यौहार :
भारतीय संस्कृति में व्रत,त्यौहार,उत्सव,मेंले आदि अपना विशेष महत्व रखते हैं । हिन्दूओं के ही सबसे अधिक त्यौहार मनाये जाते हैं, कारण हिन्दू ऋषि-मुनियों ने त्यौहारों के रूप में जीवन को सरस और सुन्दर बनाने की योजनाएँ रखी हैं । प्रत्येक त्यौहार,व्रत, उत्सव मेले आदि का एक गुप्त महत्व है । प्रत्येक के साथ भारतीय संस्कृति जुड़ी हुई है । वे विशेष विचार अथवा उद्देश्य को सामने रखकर निश्चित किये गये हैं ।

प्रथम विचार तो ऋतुओं के परिवर्तन का है । भारतीय संस्कृति में प्रकृति का साहचर्य विशेष महात्व रखता है । प्रत्येक ऋतु के परिवर्तन अपने साथ विशेष र्निदेश लाता है, खेती में कुछ स्थान रखता है । कृषि प्रधान होने के कारण प्रत्येक ऋतु-परिवर्तन हँसी-खुशी मनोरंजन के साथ अपना-अपना उपयोग रखता है । इन्हीं अवसरों पर त्यौहारों का समावेश किया गया है, जो उचित है । ये त्यौहार दो प्रकार के होते हैं और उद्देश्य की दृष्टि से इन्हीं दो भागों में विभक्त किया जा सकता है ।

प्रथम श्रेणी में वे व्रत, उत्सव, त्यौहार और मेले है, जो सांस्कृतिक है । और जिनका उद्देश्य भारतीय संस्कृति के मूल तत्वों और विचारों की रक्षा करना है । इस वर्ग में हिन्दूओं के सभी बड़े-बड़े त्यौहार आ जाते हैं, जैसे-होलिका उत्सव, दीपावली, बसन्त, श्रावणी, संक्रान्ति आदि । संस्कृति की रक्षा इनकी आत्मा है ।

दूसरी श्रेणी में वे त्यौहार आते हैं, जिन्हें किसी महापुरुष की पुण्य स्मृति में बनाया गया है । जिस महापुरुष की स्मृति के ये सूचक हैं, उसके गुणों, लीलाओं, पावन चरित्र, महानताओं को स्मरण रखने के लिए इनका विधान है । इस श्रेणी में रामनवमी, कृष्णाष्टमी, भीष्म-पंचमी, हनुमान-जयन्ती, नाग पंचमी आदि त्यौहार रखे जा सकते हैं ।  
दोनों वर्गों में मुख्य बात यह है कि लोग सांसारिकता में न डूब गये या उनका जीवन नीरस, चिन्ताग्रस्त भारस्वरूप न हो जाय; उन्हें ईश्वर की दिव्य शक्तियों और अतुल सार्मथ्य के विषय में चिन्तन, मनन, स्वाध्याय के लिए पर्याप्त अवकाश मिले । त्यौहारों के कारण सांसारिक आधि-व्याधि से पिसे हुए लोगों में नये प्रकार की उमंग और जागृति उत्पन्न हो जाती है । बहुत दिन पूर्व से ही त्यौहार मनाने में उत्साह ओर औत्सुक्य में आनंद लेने लगते हैं ।  
होलिका-उत्सव गेहूँ और चने की नई फसल का स्वगात, गर्मी के आगमन का सूचक, हँसी-खुशी और मनोरंजन का त्यौहार है । ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, जाति-वर्ण का भेद-भाव भूलकर सब हिन्दू प्रसन्न मन से एक दूसरे के गले मिलते और गुलाल, चन्दन, रोली, रंग, अबीर लगाते हैं । पारस्परिक मन-मुटाव और वैमनस्य की पुण्य गंगा बहाई जाती है । यह वैदिककालीन और अति प्राचीन त्यौहार है । ऋतुराज बसंत का उत्सव है । बसंत, पशु-पक्षी, कीट-पंतग, मानव सभी के लिए मादक मोहक ऋतु है । इसमें मनुष्य का स्वास्थ्य अच्छा रहता है । होलिका दहन प्राचीन यज्ञ-व्यवस्था का ही बिगड़ा हुआ रूप है, जब सब नागरिक भेद-भाव छोड़कर छोटे-छोटे यज्ञों की योजना करते थे, मिल-जुल कर प्रेम पूर्वक बैठते थे, गायन-वादन करते और शिष्ट मनोरंजन से आनंद मनाते थे । आजकल इस उत्सव में जो अपवित्रता आ गई है, उसे दूर रहना चाहिए । अश्लीलता और अशिष्टता को दूर करना आवश्यक है ।
दीपावली लक्ष्मी -पूजन का त्यौहार है । गणेश चतुर्थी, संकट नाशक त्यौहार है । गणेश में राजनीति, वैदिक पौराणिक महत्त्व भरा हुआ है । तत्कालीन राजनीति का परिचायक है । बसन्त पंचमी प्रकृति की शोभा का उत्सव है । ऋतुराज बसंत के आगमन का स्वागत इसमे किया जाता है । प्रकृति का जो सौन्दर्य इस ऋतु में देखा जाता है, अन्य ऋतुओं में नहीं मिलता है । इस दिन सरस्वती पूजन भी किया जाता है । प्रकृति की मादकता के कारण यह उत्सव प्रसन्नता का त्यौहार है । इस प्रकार हमारे अन्य त्यौहारों का भी सांस्कृतिक महत्त्व है । सामूहिक रूप से सब को मिलाकर आनंद मनाने, एकता के सूत्र में बाँधने का गुप्त रहस्य हमारे त्यौहार और उत्सवों में छिपा हुआ है ।
* त्रिकाल संध्या
भारतीय संस्कृति में मंत्र, स्तुति, संध्यावन्दन, प्रार्थना आदि का महत्व है । अधिकांश देवी-देवताओं के लिए हमारे यहाँ निश्चित स्तुतियाँ हैं, भजन हैं, प्रार्थनाएँ हैं, आरतियाँ हैं । प्रार्थना मंत्र स्तुति आदि द्वारा देवताओं से भी बल, कीर्ति आदि विभूतियाँ प्राप्त होती हैं । ये सब कार्य हमारी अंतः शुद्धि के मनोवैज्ञानिक साधन हैं ।
जैसे भिन्न-भिन्न मनुष्यों की भिन्न-भिन्न रुचियाँ होती हैं, वैसे ही हमारे पृथक-पृथक देवताओं की मन्त्र, आरतियाँ, पूजा प्रार्थना की विधियाँ भी पृथक-पृथक ही हैं । ये देवी-देवता हमारे भावों के ही मूर्त रूप हैं । जैसे हनुमान हमारी शारीरिक शक्ति के मूर्त स्वरूप हैं, शिव कल्याण के मूर्त रूप हैं, लक्ष्मी आर्थिक बल की मूर्त रूप हैं आदि । अपने उद्देश्य के अनुसार जिस देवी-देवता की स्तुति या आरती करते हैं, उसी प्रकार के भावों या विचारों का प्रादुर्भाव निरन्तर हमारे मन में होने लगता है । हम जिन शब्दों अथवा विचारों, नाम अथवा गुणों का पुनः-पुनः उच्चारण, ध्यान या निरन्तर चिंतन करते हैं, वे ही हमारी अन्तश्चेतना उच्चारण ही अपनी चेतना में इन्हें धारण करने का साधन है । मंत्र, प्रार्थ्ाना या वन्दन द्वारा उस दिव्य चेतना का आवाहन करके उसको मन, बुद्धि और शरीर में धारणा करते हैं । अतः ये वे उपाय हैं जिनसे सदगुणों का विकास होता है और चित्त शुद्धि हो जाती है ।
प्रत्येक देवता की जो स्तुति, मंत्र या प्रार्थना है, वह स्तरीय होकर आस-पास के वातावरण मे कम्पन करती है । उस भाव की आकृतियाँ समूचे वातावरण में फैल जाती हैं । हमारा मन और आत्मा उससे पूर्णतः सिक्त भी हो जाता है । हमारा मन उन कम्पनों से उस उच्च भाव-स्तर में पहुँचता है, जो उस देवता का भाव-स्तर है, जिसका हम मंत्र जपते हैं, या जिसकी अर्चना करते हैं, प्रार्थना द्वारा मन उस देवता के सम्पर्क में आता है । उन मंत्रों से जप बाहर-भीतर एक सी स्थिति उत्पन्न हो जाती है । इस प्रकार मंत्र, जप, प्रार्थ्ाना, स्तुतियाँ कम्पनात्मक शक्ति हैं ।  
(भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व पृ.सं.३.१४२ से सभार......)

  • संस्कृति का सामाजिक पक्ष.........

अपने सामाजिक पक्ष में भी भारतीय संस्कृति वैज्ञानिक आधारों पर खड़ी हुई है । भारतीय तत्त्व ज्ञानियों ने सामाजिक क्षेत्र में बहुत खोज-बीन करके ऐसे नियम निर्धारित किए थे, जो प्रचुर फल देेने वाले हैं और आज भी जिनसे समग्र हिन्दू जाति लाभ उठा रही है । हमारे शास्त्रों में आचार को परम धर्म कहा गया है । भारतीय तत्त्ववेत्ता यह मानते हैं कि जो सिद्धांत अथवा विचार आचरण में नहीं आ सकते, वे उपयोगी नहीं हैं और जो धर्म व्यवहार में नहीं आता, जिससे हमारा दैनिक जीवन और समस्याएँ हल नहीं होती, जीवन सुख-शान्तिमय नहीं बनता, हम उसे ''धर्म'' नहीं कह सकते । हमारी संस्कृति में धर्म के अन्तर्गत उन सिद्धांतों को स्थान दिया गया है, जिनसे हमारा नैतिक और आध्यात्मिक ही नहीं, वरन् सामाजिक जीवन भी उन्नत बनता है । वर्तमान युग संक्रान्ति और संघर्ष का युग है । यदि हम भारतीय आचार परम्परा को बचाना चाहते हैं, तो हमें अपनी संस्कृति में घुसे हुए दोषों को दूर कर पूरी श्रद्धा से पूर्वजों की परिपाटी को ग्रहण करना होगा ।

एक युग ऐसा आया था कि भारतीय संस्कृति को वाम-मार्ग से कड़ा मुकाबला करना पड़ा था । आर्य संस्कृति के समर्थकों ने अपने उज्ज्वल चरित्र के बल पर वाम-मार्ग के प्रभाव को रोक दिया था । आज पुनः वही विचारधारा नूतन रूप में पाश्चात्य संस्कृति की वेश-भूषा में हमारे सम्मुख आई है । भौतिकवाद और कम्यूनिज्म के प्रचारक खुले आम पुराने आचार-विचार का विरोध कर रहे हैं, लेकिन हमारा विश्वास है कि भारतीय संस्कृति के पुष्ट सामाजिक पक्ष के सम्मुख इस भौतिकवाद की बालू की दीवार न ठहर सकेगी । भारतीय समाज की आधार-शिला सदाचार पर ही आसीन है, इसलिए उसका धर्म बतलाते हुए प्रथम सूत्र ''आचारः प्रथमो धर्म'' कहा गया है । हमारे यहाँ चार वर्ण और चार आश्र्ामों की व्यवस्था रही है । इसकी उत्कृष्टता पर यहाँ संक्षेप में विचार प्रस्तुत किए जाते है ।
*
चार वर्ण :
 


हमारे वेदों में वर्ण-व्यवस्था का विधान रखा गया है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्णों में सम्पूर्ण समाज विभक्त कर दिया गया है । चारों वर्णों का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक अपना निर्धारित कार्य मिल -बाँट कर पूरी कुशलता से सम्पन्न करें । यदि एक व्यक्ति एक प्रकार का कार्य पूरा मन लगाकर करता है, तो उसमें कुशलता और विशेषज्ञता मिल जाती है । बार-बार कार्य को बदलते रहने से कुछ भी लाभ नहीं होता, न काम ही अच्छा बनता है । अतः वेदों में चारों वर्णों के कर्मों का पृथक-पृथक वर्णन हैः-

''ब्रह्म धारय क्षत्रं धारय विशं धाराय'' (यर्जुवेद ३८-१४)
अर्थात् ''हमारे हित के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को धारण करो ।''

''उस विराट पुरुष (ईश्वर) के ब्राह्मण मुख हैं, क्षत्रिय भुजाएँ हैं, वैश्य उरू हैं और शुद्र पैर हैं ।''
(यर्जुवेद ३१-११)

महाभारत काल में वर्ण-व्यवस्था प्रचलित थी । चारों वर्णों के र्कत्तव्य अनेक स्थलों पर बतलाये गये हैं । (देखिए महाभारत आदि पर्व ६४/८/३४)यह भी वर्णन आता है है कि सारे वर्ण अपने-अपने वर्णानुसार कर्म करने में तत्पर रहते थे और इस प्रकार आचरण करने से धर्म का ह्रास नहीं होता था (महा. आदि. ६४-२४) गीता में वर्ण-व्यवस्था का उल्लेख इस प्रकार किया गया हैः-
''चातुर्वर्ण्य मया सृष्टां गुणकर्मविभागशः ।''
''मैंने गुण, कर्म के भेद से चारों वर्ण बनाये ।''


इस प्रकार गुण-कर्म के अनुसार हमारे यहाँ वर्णों का विधान है ।
ब्राह्मण वह है, जो अपनी विद्या, बुद्धि, और ज्ञान से समाज के अज्ञान और मूढ़ता को दूर करने का प्रण करता है। जो कमजोरी या दुर्बलता की कमी की पूर्ति करता है, वह क्षत्रिय है । सारे समाज की रक्षा का भार उस पर है ।
हमारी जाति-पाति के काम का विभाजन मात्र है । जो कार्य करना जानता हो, वह वैसा ही कार्य करें, वैसी जाति में शामिल समझा जाये । आज इस व्यवस्था का दुरुपयोग हो रहा है । हमारे यहाँ अनेक उपजातियाँ बन गई है । ब्राह्मणों में ही दो सहस्र अवान्तर भेद है । केवल सारस्वत ब्राह्मणों की ही ४६९ शाखाएँ हैं । क्षत्रियों की ९९० और वैश्यों तथा शूद्रों की तो इससे भी अधिक उपजातियाँ है । इस संकुचित दायरे के भीतर ही विवाह होते रहते हैं । फल यह हुआ है कि इससे भारत की सांस्कृतिक एकता नष्ट हो गई है । कुछ व्यक्ति योग्यता या शुद्धाचरण न होते हुए भी अपने को ऊँचा और पवित्र मानने लगे हैं और कुछ अपने को नीच और अपवित्र समझने लगे हैं ।

गुण-कर्म ही आदर तथा उच्चता के मापदण्ड हैं । गुण का ही सामाजिक सम्मान होना चाहिए, न कि जन्म का । शूद्र वर्ण का कोई व्यक्ति यदि अपनी योग्यता, विद्या, बुद्धि बढ़ा लेता है, तो उसका भी ब्राह्मण के समान आदर होना चाहिए । जन्म के कारण कोई बष्किार के योग्य नहीं हैं, महाभारत में युधिष्ठिर और यज्ञ के सम्वाद में कहा गया है-
''मनुष्य जन्म से ही ब्राह्मण नहीं बन जाता है, न वह वेदों के ज्ञान मात्र से ब्राह्मण बन जाता है । उच्च चरित्र से ही मनुष्य ब्राह्मण माना जाता है ।''

मनुस्मृति का वचन है-
''विप्राणं ज्ञानतो ज्येष्ठम् क्षत्रियाणं तु वीर्यतः ।''
अर्थात् ''ब्राह्मण की प्रतिष्ठा ज्ञान से है तथा क्षत्रिय की बल वीर्य से ।'' जावालि का पुत्र सत्यकाम जाबालि अज्ञात वर्ण होते हुए भी सत्यवक्ता होने के कारण ब्रह्म-विद्या का अधिकारी समझा गया । अतः जाति-व्यवस्था की संकीर्णता छोड़ देने योग्य है । गुण, कर्म और स्वभाव के अनुसार ही वर्ण का निर्णय होना चाहिए ।
 * चार आश्रम :

भारतीय संस्कृति ने जीवन के हर क्षेत्र में गम्भीरता से विचार किया जै । सम्पूर्ण जीवन को सौ वर्षों का मान कर २५-२५ वर्षों के चार भाग बना दिये हैं । प्रथम पच्चीस वर्ष शरीर, मन, बुद्धि के विकास के लिए रखे गये हैं । इस आश्रम का नाम ब्रह्मचर्य है । इन वर्षोंक में युवक या युवती को संयमित जीवन बिताकर आने वाले सांसारिक जीवन के उपयुक्त शक्ति-संचय करना पड़ता था । वह मूलः एक विद्यार्थी ही होता था, जिसका कार्य प्रधान रूप से शारीरिक, मानसिक और नैतिक शक्तियाँ प्राप्त करना था । यह ठीक भी है, जब तक हर प्रकार की शक्तियाँ एकत्रित कर मनुष्य सुसंगठित न बने, जब तक उसकी बुद्धि और मन शरीर इत्यादि की शक्तियों का पूरा-पूरा विकास न हो, वह पूरी तरह चरित्रवान्, संयमी दृढ़ निश्चयी न बने, तब तक उसे सांसारिक जीवन में प्रविष्ठ नहीं होना चाहिए ।

दूसरा आश्रम गृहस्थ है २५ से ५० वर्ष की आयु गृहस्थ आश्र्ाम के लिए है । पति-पत्नी धार्मिक जीवन व्यतीत करते हुए पूरी जिम्मेदारी से अपने नागरिक र्कत्तव्यों को पालन करते थे । परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारी को पूरा करते थे । अपने व्यवसाय में दिलचस्पी लेकर आनंदमय जीवन व्यतीत करते थे । धर्माचरण द्वारा गृहस्थ जीवन के सुख प्राप्त करते थे धर्म, अर्थ, काम मोक्ष, आदि चारों का सुख भोग करने का विधान है ।

उम्र ढलने पर सांसारिक कार्यों से हटना चाहिए । लेकिन इस पृथकता से समय लगता है । धीरे-धीरे भौतिक जीवन की आवश्यकताएँ कमी करनी होती है । अतः ५० से ७५ वर्ष तक की आयु से गृहस्थ भार से मुक्त होकर जन-सेवा का विधान है । इसे वानप्रस्थ कहा गया है । गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारियों से मुक्ति पाना मनुष्य का मानसिक स्थिति के लिए परम उपयोगी है । पारमार्थिक जीवन के लिए पर्याप्त समय निकल आता है । वानप्रस्थ का अर्थ यह भी है कि घर पर रहते हुए ही मनुष्य ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करे, संयम का अभ्यास करे, बच्चों को विद्या पढ़ाये, फिर धीरे-धीरे अपनी जिम्मेदारी अपने बच्चों पर डालकर बाहर निकल जाये । पूर्ण परिपक्व व्यक्ति ही घर से बाहर संयासी के रूप में निकल कर जनता के हित के लिए सार्वजनिक कार्य कर सकता था । चिकित्सा, धर्म-प्रचार और पथ-प्रदर्शन का कार्य इन योग्यतम संन्यासियों के हाथ में ही रहता था । समाज उन्नति की दिशा में आगे बढ़ता था । आज जैसे कम उम्र के अनुभव विहीन दिखावटी धर्म प्रचारक उन दिनों नहीं थे । वे पैसा-कौड़ी भी न लेते थे और काम पूरे मन से करते थे । आज इतना व्यय करने पर भी वह लाभ नहीं होता । संन्यास की पहिचान भी ज्ञान ही है ।

यह आश्रम-व्यवस्था भारतीय मनोवैज्ञानिकों की तीव्र बुद्धि कौशल की सूचक है । व्यवसायिक दक्षता प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य पूरे परिश्रम और लगन से २५ वर्ष तक तप जाने से मनुष्य आगे आने वाले जीवन के लिए मजबूत बन जाता था । जिम्मेदारियों, अच्छाइयों, बुराइयों को समझ जाता था । आश्रम-परिवर्तन तात्पर्य उसके मन में धीरे-धीरे आने वाला मानसिक परिवर्तन भी था । धीरे-धीरे मानसिक
परिपक्वता आती थी और अगला आश्रम आसान बनता जाता था । चुनाव और सोचने के लिए भी पर्याप्त अवकाश प्राप्त हो जाता हाथ ऐसा भी था कि सीधे ब्रह्मचर्य से कुछ उपकारी व्यक्ति वानप्रस्थ हो जाते थे । और सन्यास ले लेते थे । तात्पर्य यह कि एक आदर्श मार्ग-दशर्न का रूप हमारे इन वणार्श्रमों में रखा गया था । आज इस व्यवस्था में गड़बड़ी आ गई है । इस कारण तपे हुए अनुभवी वृद्ध कायर्कर्त्ता समाज को नहीं मिल रहे हैं । उपदेशकों और प्रचारकों में अर्थ मोह या प्रसिद्धि का मोह बना हुआ है ।
यह आश्रमों की परम्परा जब तक हमारे देश में जीवित रही तब तक यश, श्री और सौभाग्य में यह राष्ट्र सर्व शिरोमणि बना रहा । श्रेय और प्रेय का इतना सुन्दर सामंजस्य किसी अन्य जाति या धर्म में मिलना कठिन है । हमारी कल्पना है कि मनुष्य आनंद में जन्म लेता है । आनंद से जीवित रहता और अन्त में आनंद में ही विलीन हो जाता है । मनुष्य का लक्ष्य भी यही है । इन आवश्यकता की पूर्ति आश्रम व्यवस्था में ही सन्निहित है । समाज की सुदृढ़ रचना और मनुष्य के जीवन ध्येय की पूर्ति के लिये आश्रम-व्यवस्था का पुनजार्गरण आवश्यक है ।

(भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व पृ.सं.४.२८-२९
से सभार......)

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1.समस्त विश्व को भारत के अजस्र अनुदान


भारत जिसमें कभी तैंतीस कोटि देवता निवास करते थे, जिसे कभी स्वर्गादपि गरीयसी कहा जाता था, एक स्वर्णिम अतीत वाला चिर पुरातन देश है जिसके अनुदानों से विश्व-वसुधा का चप्पा-चप्पा लाभान्वित हुआ है । भारत ने ही अनादि काल से समस्त संसार का मार्ग-दर्शन किया हैं ज्ञान और विज्ञान की समस्त धाराओं का उदय, अवतरण भी सर्वप्रथम इसी धरती पर हुआ पर यह यहीं तक सीमित नहीं रहा-यह सारे विश्व में यहाँ से फैल गया । सोने की चिडि़या कहा जाने वाला हमारा भारतवर्ष जिसकी परिधि कभी सारी विश्व-वसुधा थी, आज अपने दो सहस्र वर्षीय अंधकार युग के बाद पुनः उसी गौरव की प्राप्ति की ओर अग्रसर है । परमपूज्य गुरुदेव ने जन-जन को उसी गौरव की जानकारी कराने के लिए यह शोध प्रबन्ध 1973-74 में अपने विदेश प्रवास से लौटकर लिखाया एवं यह प्रतिपादित किया कि देवसंस्कृति ही सारे विश्व को पुनः वह गौरव दिला सकती है जिसके आधार पर सतयुगी संभवनाएँ साकार हो सकें । उसी शोध प्रबंध को सितम्बर 1990 में पुनः दो खण्डों में प्रकाशित किया गया था । इस वाङ्मय में उस शोध प्रबंध के अतिरिक्त देव संस्कृति की गौरव-गरिमा पर अनेकानेक निबंध संकलित कर उन्हें एक जिल्द में बाँधकर प्रस्तुत किया गया है ।
''सा प्रथमा संस्कृति विश्ववारा'' यह उक्ति बताती है कि हमारी संस्कृति, हिन्दू संस्कृति देव संस्कृति, ही सर्व प्रथम वह संस्कृति थी जो सभी विश्वभर में फैल गयी । अपनी संस्कृति पर गौरव जिन्हें होना चाहिए वे ही भारतीय यदि इस तथ्य से विमुख होकर पाश्चात्य सभ्यता की ओर उन्मुख होने लगें तो इसे एक विडम्बना ही कहा जायगा । इसी तथ्य पर सर्वाधिकार जोर देते हुए पूज्यवर ने लिखा है कि जिस देश का अतीत इतना गौरवमय रहा हो, जिसकी इतनी महत्वपूर्ण सांस्कृतिक पुण्य परम्पराएँ रहीं हों, उसे अपने पूर्वजों को न भुलाकर अपना चिन्तन और कर्तृत्त्व वैसा ही बनाकर देवोपम स्तर का जीवन जीना चाहिए । वसतुतः सांस्कृतिक मूल्य ही किसी राष्ट की प्रगति अवगति का आधार बनते हैं । जब इनकी अवमानना होती है तो राष्ट पतन की ओर जाने लगता है । संस्कृति के उत्थान में रहा है । जब-जब यह परिष्कृति रहा है, तब-तब इसने राष्ट ही नहीं, विश्व भर की समस्त सभ्यताओं को विकास मार्ग दिखाया है । आज भी ऐसे परिष्कृति धर्मतंत्र विज्ञान सम्भव उन प्रतिपादनों पर टिका है जो संस्कृति के प्रत्येक निर्धारण की उपयोगिता प्रतिपादित करते हैं। इन्हीं सब का विवेचन इस खण्ड में हैं ।

  1. 1. योग....


गीता में योग की परिभाषा योगःकर्मसु कौशलम् (2-50) की गयी है । दूसरी परिभाषा समत्वं योग उच्यते(2-48) है । कर्म की कुशलता और समता को इन परिभाषाओं में योग बताया गया है । पातंजलि योग दर्शन में योगश्चिय वृत्ति निरोधः (1-1) चित्त की वृत्तियों के निरोध को योग कहा गया है । इन परिभाषाओं पर विचार करने से योग कोई ऐसी रहस्यमय या अतिवादी वस्तु नही रह जाती कि जिसका उपयोग सवर्साधारण द्वारा न हो सके । दो वस्तुओं के मिलने को योग कहते हैं । पृथकता वियोग है और सम्मिलन योग है । आत्मा का सम्बन्ध परमात्मा से जोड़ना योग होता है ।
जीवत्म परमात्म संयोगो योगःकहकर भगवान याज्ञवल्क्य ने जिस योग की विवेचना की वह केवल कल्पना नहीं, अपितु हमारे दैनिक जीवन की एक अनुभूत साधना है और एक ऐसा उपाय है जिसके द्वारा हम अपने साधारण मानसिक क्लेशों एवं जीवन की अन्यान्य कठिनाइयों का बहुत सुविधापूर्वक निराकरण कर सकते हैं । हमारे अन्दर मृग के कस्तूरी के समान रहने वाली जीवात्मा एक ओर मन की चंचल चित्तवृत्तियों द्वारा उसे ओर खींची जाती है और दूसरी ओर परमात्मा उसे अपनी ओर बुलाता है । इन्हीं दोनों रज्जुओं से बँध कर निरन्तर काल के झूले में झूलने वाली जीवात्मा चिर काल तक कर्म कलापों में रत रहती है । यह जानते हुए भी कि जीवात्मा दोनों को एक साथ नहीं पा सकती और एक को खोकर ही दूसरे को पा सकना सम्भव है वह दोनों की ही खींचतान की द्विविधा में पड़ी रहती है । इसी द्विविधा द्वारा उत्पन्न संघर्षो को संकलन समाज और समाजों का सम्पादन विश्व कहलाता है ।
उर्पयुक्त विवेचना का एक दूसरा स्वरूप भी है और वह यह है कि जीवात्मा और परमात्मा के बीच मन बाधक के रूप में आकर उपस्थित होता है । कुरुक्षेत्र में पार्थ ने मन की इस सत्ता से भयभीत होकर ही प्रार्थना की थी चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवदृढ़म । मन मनुष्य को वासना की ओर खींचकर क्रमशःउसे परमात्मा से दूर करता जाता है । उसे सीमित करना पवन को बन्धन में लाने के समान ही दुष्कर है । आत्मा और परमात्मा के निकट आये बिना आनन्द का अनुभव नहीं होता । ज्यों-ज्यों जीवात्मा मन से सन्निकटता प्राप्त करती जाती है वह क्लेश एवं संघर्षों से लिपटती जाती । आत्मा का एकाकार ही परमानन्द की स्थिति है । सन्त कबीर ने इस एकाकार को ही आध्यात्मिक विवाह का रूप दिया है और गाया है ।
जिस डर से सब जग डरे, मेरे मन आनन्द ।
कब भारिहों कब पाइहों पूरन परमानन्द ॥
मन को वश में करने की मुक्ति ही योग है । महर्षि पातंजलि ने कहा भी है-योगश्चित्त वृत्ति निरोधः । चित्तवृत्ति के निरोध से ही योग की उत्पत्ति की उत्पत्ति होती है और इसी को प्राप्ति ही योग का लक्ष है । गीता में भगवान कृष्ण ने योग की महत्ता बतलाते हुए कहा है कि यद्यपि मन चंचल है फिर भी योगाभ्यास तथा उसके द्वारा उत्पन्न वैराग्य द्वारा उसे वश में किया जा सकता है ।
व्यावहारिक रूप से योग का तात्पर्य होता है जोड़ना या बाँधना । जिस प्रकार घोड़े को एक स्थान पर बाँधकर उसकी चपलता को नष्ट कर दिया जाता है उसी प्रकार योग द्वारा मन को सीमित किया जा सकता है । विस्तार पाकर मन आत्मा को अच्छादित न करले इसलिए योग की सहायता आवश्यक भी हो जाती हे । भक्तियोग और राजयोग से ऊपर उठाकर त्रिकालयोग के दर्शन होते हैं और यही सर्वश्रेष्ठ योग है ।
इन्हीं तीनों योगों का व्यावहारिक साधारणीकरण कर्मयोग है और आज के संघर्षमय युग में कर्मयोग ही सबसे पुण्य साधना है ।
संसार और उसकी यथार्थता ही कर्मयोगी का कार्य क्षेत्र है । फल के प्रति उदासिन रहकर कर्म के प्रति जागरूक होकर ही मनुष्य क्रमशः मन पर विजय पाता है और परमात्मा से अपना सम्बन्ध सुदृढ़ करता है । कर्मयोग की प्रेरणा किसी कर्मयोगी के जीवन को आदर्श मानकर ही प्राप्त होती है । अपने कर्तव्य के प्रति तल्लीनता तथा विषय जन्य भावनाओं के प्रति निराशक्ति ही कर्मयोग की पहली सीढ़ी है ।
कर्मयोगी के जीवन में निराशा अथवा असफलता के लिए कोई स्थान नहीं क्योंकि एक तो वह इनकी सत्ता ही स्वीकार नहीं करता और दूसरे उसकी दृष्टि कर्म से उठकर परिणाम तक पहुँच ही नहीं पाती । यहाँ तक की सच्चा कर्मयोगी परमात्मा की प्राप्ति के प्रति भी बीत राग हो जाता है । उस स्थिति पर तस्माद्योगी भवाजुर्न के अनुसार कर्मयोगी वह पद प्राप्त कर लेता है जहाँ मैं तुमसे हूँ एक, एक हैं जैसे रश्मि प्रकाश के रूप में आत्मा और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं रह जाता ।

पार्थिव शरीर को जगत के लिए उपयोगी बनाने एवं उसके उपरान्त मुक्ति प्राप्त करने का एक मात्र का साधन योग है ।
युजिर योग धातु से योग शब्द सिद्ध होता है जिसका तात्पर्य जोड़ या मेल है । मनुष्य का मेल मनुष्य, पशु-पक्षी तथा जड़ पदार्थों से भी होता है, परन्तु उसका नाम योग नहीं, बल्कि संयोग है ।
अध्यात्म विद्या में जीव-ईश्वर संयोग को योग कहते हैं । परमात्मा इस जीवात्मा से सदैव सर्वस्थल में मिला हुआ है कभी पृथक् नहीं रहता, यहाँ तक कि जब मनुष्य भौतिक शरीर त्याग कर बाहर निकल जाता है तथा गर्भ में निवास करता है या मोक्ष को प्राप्त होता है । अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि जब जीव और ईश्वर का वियोग किसी देश काल तथा अवस्था में होता नहीं तो फिर योग कैसा? और उसकी आवश्यकता ही क्या? इसका सरल उत्तर यह है कि योग तो आत्मा का ईश्वर से योग प्रत्येक दशा से होता है, यही जीवन है । परन्तु यह स्वभाविक योग जीव की ओर से नहीं होता ओर न उसको इस योग का ज्ञान होता है और न उसका अनुभव व आनन्द ही जीव को प्राप्त होता है ।
अस्तु जीव को ईश्वर के मेल का ज्ञान होना ही योग है और इस अनुभव द्वारा प्रयत्नशील योगीजनों को साक्षात्कार हो जाना ही परमानन्द है । परमानन्द प्राप्त हो जाने के पश्चात शेष प्राप्त करने के लिए कुछ नहीं रहता यही परमपद और मोक्ष दशा है । जब तक इस अवस्था को मनुष्य प्राप्त नहीं कर लेता है तब तक अनेकों शरीरों में घूमता हुआ नाना प्रकार के कष्टों को भोगता हुआ बहुत जन्मों के पश्चात शुभ कर्मो और शुभ संस्कारों एवं ईश्वर की परम कृपा से योग साधन करने के लिए मनुष्य शरीर की प्राप्ति होती है । परमानन्द अर्थात जिसे प्राप्त कर लेने के बाद कभी भी जीव-दुःख को प्राप्त नहीं होता और न दुःख स्वरूप शरीरों को प्राप्त होता है अर्थात सर्वदा परमानन्द में निवास करता है । यही परम आवश्यकता है ।
जीवात्मा को इस बात का यथार्थ ज्ञान और अनुभव व साक्षात्कार हो जाना कि वह घटघट वासी सर्वव्यापक मेरे पास है और मैं उसकी गोद या शरण में हूँ ऐसी अवस्था का नाम जीवन का ईश्वर से योग है और इसके उपाय व क्रिया का नाम योगाङनुष्ठान या योगाभ्यास है और इस योग से जो दुःख निवृत्ति तथा सुख प्राप्ति रूपी फल मिलता है उसको योग विभूति आदि समझना चाहिए ।
इस जीवात्मा का दो पदार्थों से सम्बन्ध रहता है । अर्थात प्राकृतिक जगत व माया से या यों समझिए कि प्राकृतिक जगत व अप्राकृतिक जगदीश्वर से, क्योंकि मनुष्य का मन एक है और वह एक समय में, एक ही विषय को ग्रहण तथा अनुभव करता है और मन प्रकृति का पुत्र है, इसलिए वह अधिकार अपनी माता माया देवी से ही नियुक्ति रहता है । यही कारण है कि वह जगत पिता परम देव मायापति की आज्ञा तथा अनुभव से विमुख तथा वियुक्त रहता है ।
जब इसको परमपिता की सत्ता का ही ज्ञान नहीं है तो उससे प्यार व योग का ज्ञान कैसे हो सकता है? परन्तु माया की गोद में क्षणिक अस्थिर सुखाभास प्राप्त होता है । परमपिता के योग से स्थिर तथा चिरकाल तक रहने वाला चिरानन्द प्राप्त होता है ।
जैसे माता के क्षीर पान करने से थोड़ी देर के लिए क्षुधा तृषा से तृप्ति हो जाती है, यथार्थ तृप्ति रूप शान्ति नहीं । थोड़ी देर पश्चात फिर भूख-प्यास आकर सताती है, परन्तु योगाभ्यास करते-करते इस भौतिक शरीर के रहते हुए भी जग योगाभ्यासी कण्ठ कूप में जो तालू के काग के समीप एक कूप जैसा गढ़ा है, जब योगी उसमें संयम करता है, तो बहुत काल तक योगी इसका संयम करता रहेगा तब तक भूख प्यास न लगेगी । यथा-
कण्ठे कूपे क्षूति विपासा निवृत्तिः
अब समझो कि जब भौतिक माया माता का शरीर विद्यमान होते हुए भी मानस यज्ञ का दीक्षित यजमान (योगी) उस परम ज्योतिर्मय भगवान का ध्यान करता है तो उसकी भूख-प्यास पयान कर जाती है । यदि स्थूल भौतिक शरीर को त्याग कर सूक्ष्म दिव्य शरीर से केवल परमपिता का ही सेवन मुक्त पुरुष करता है तो फिर उसको भूख-प्यास से तनिक सम्बन्ध नहीं रहता ।
जैसे एक बालक अपनी माँ की गोद से पृथक होकर रोता और बिलबिलाता है उसको भूख ने सता रखा है, बिल्ली, कुत्ते व अन्धकार आदि ने डरा रखा है और वह अपनी प्यारी माता को नहीं देखता इसलिए दुःखी होकर रोता है और चिल्लाता है । परन्तु जब जननी अपने लाड़ले और सलौने पुत्र को अपनी प्रेममय गोद में उठा लेती है तो वह कैसा प्रेम पुलकित हो जाता है और छाती से लिपटकर दूध पीता है, उस समय पहली सारी पीड़ा भूल जाता है । यही दशा हम सब जीवों की परम जननी और जनक के झगड़ों में फँसे हुए बहुत थक कर व्याकुल हो जाते हैं जब पिताजी गहरी नींद देकर अपने गोद अंगों में भर लेते हैं । उस समय लेश मात्र भी क्लेश नहीं रहता-यह वैत्तिक योग है जो सुषुप्ति अवस्था में हमको प्राप्त होता है । परन्तु शोक कि इसके महत्त्व को नहीं समझते हैं इसलिए इसका मान नहीं करते! इसका भी मुख्य कारण है कि जैसे किसी सोते हुए बालक को उसकी माता प्यार करती है परन्तु सुप्त सपूत को उसकी कुछ भी सुधि नहीं है इसलिए वह उसके प्यार की न प्रतिष्ठा करता है और न उसका धन्यवाद देता है । यही दशा सुषुप्ति अवस्था में हमारे साथ परम प्रेमी के प्यार व योग की है । इसका प्रयोजन यह है कि परमेश्वर अपने योग द्वारा अपनी दशा दर्शाते और प्यार दिखाते हैं । परन्तु हम कपूत कृतघ्न बालक उनके प्यार की कुछ परवाह नहीं करते, न उसको धन्यवाद देते हैं ।
जब हम दुःखमय दुनिया में बहुत दुःखी हो जाते हैं और प्रभू से मिलने की सत्य उत्कण्ठा हमारे मन में उत्पन्न होती है और हम प्रयत्न करके अपने मन-मन्दिर हृदयाकाश में उस प्यारे को विराजमान देखते हैं और समस्त संसार की सामग्री की सुधबुध अपने मन से भुला देते हैं, तब हमको अपने अन्तःकरण में उस विभु के विराजमान होने का ज्ञान होता है और चक्षु से अपने आत्माराम के समक्ष जाज्वल्यमान देखते हैं उसका नाम योग है !
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2. आयुर्वेद......


अन्न को शास्त्रों में प्राण की संज्ञा दी गई है । अन्न को प्राण कहने में न तो कोई अयुक्तता है और न अत्युक्ति । निःसन्देह वह प्राण ही है । भोजन के तत्वों से ही शरीर में जीवनी शक्ति का निर्माण होता है । उसी से माँस, रक्त, मज्जा, अस्थि तथा ओजवीर्य आदि का निर्माण हुआ करता है । भोजन के अभाव में इन आवश्यक तत्वों का निर्माण रुक जाये तो शरीर शीघ्र ही स्वत्वहीन होकर स्तब्ध हो जाय ।
अन्न सर्व साधन रूप शरीर का आधार है । प्रत्येक मनुष्य तन, मन अथवा आत्मा से जो कुछ दिखाई देता है, उसका बहुत कुछ आधार हेतु उसका आहार ही है । जन्म काल से लेकर मृत्युपर्यन्त प्राणी का पालन, सम्वर्धन एवं अनुवर्धन आहार के आधार पर ही हुआ करता है । किसी का बलिष्ठ अथवा निर्बल होना, स्वस्थ अथवा अस्वस्थ होना बहुत अंशों तक भोजन पर ही निर्भर रहता है ।
समस्त सृष्टि तथा हमारे जीवन के लिए भोजन का इतना महत्व होते हुए भी कितने व्यक्ति ऐसे होंगे जो प्राण रूप आहार के विषय में जानकारी रखते हों और उसके सम्बन्ध में सावधान रहते हों, संसार में दिखलाई देने वाले शारीरिक एवं मानसिक दोषों में अधिकांश का कारण आहार सम्बंधी अज्ञान एवं असंयम ही है । जो भोजन शरीर को शक्ति और मन को बुद्धि को प्रखरता प्रदान करता है, वही असंयमित भी बना देता है । शारीरिक अथवा मानसिकजैसा खाये अन्न वैसा बने मन वाली कहावत से यही प्रतिध्वनित होता है कि मनुष्य की अच्छी-बुरी प्रवृत्तियों का जन्म एवं पालन अच्छे, बुरे आहार पर ही निर्भर है । विकृतियों को भोजन विषयक भूलों का ही परिणाम मानना चाहिये । अन्न दोष संसार के अन्य दोषों की जड़ है-
निःसंदेह मनुष्य जिस प्रकार का राजसी, तामसी अथवा सात्विकी भोजन करता है, उसी प्रकार उसके गुणों एवम् स्वभाव का निर्माण होता है और जिनसे प्रेरित उसके कर्म भी वैसे ही हो जाते हैं फलतः कर्म के अनुसार ही मनुष्य का उत्थान-पतन हुआ करता है । जो मनुष्य इतने महत्वपूर्ण पदार्थ भोजन के सम्बन्ध में अनभिज्ञ है अथवा असंयम बरतता है उसे बुद्धिमान नहीं कहा जा सकता । आध्यात्मिक उन्नति करने के लिए प्रक्ताहार विहार का नियम कड़ाई के साथ पालन करने के लिए कहा गया है, जो मनुष्य किसी भी क्षेत्र में स्वस्थ, सुन्दर, सौम्य एवं समुन्नत जीवनयापन करना चाहता है उसके लिए भोजन सम्बंधी ज्ञान तथा उसका संयम बहुत आवश्यक है । भोजन के प्रति असंयम व्यक्ति अन्य किसी प्रकार के संयम का पालन नहीं कर सकता । भोजन का संयम अन्य इन्द्रियों के संयमों के पालन करने में बहुत कुछ सहायक होता है ।
जीवन निर्माण के आधार भोजन सम्बंधी अज्ञान कुछ कम खेद का विषय नहीं है । मनुष्य जो कुछ खाता है और जिसके बल पर जीता है, उसके विषय में क, ख तक न जानना निःसन्देह लज्जा की बात है । कितने आश्चर्य का विषय है जो मनुष्य कपड़ों लत्तों, घर-मकान और देश- देशान्तर के विषय में बहुत कुछ जानता है या जानने के लिए उत्सुक रहता है, वह जीवन तत्व देने वाले भोजन के विषय में जरा भी नहीं जानता और न जानना चाहता है । इसी अज्ञान के कारण हमारी भोजन सम्बंधी न जाने कितनी भ्रान्त धारणायें बन गई हैं । अनेक लोग यह यह समझते हैं कि जो भोजन जिव्हा को रुचिकर लगे, जिसमें दूध, दही, मक्खन आदि पौष्टिक पदार्थों का प्रचुर मात्रा में समावेश हो, मिर्च- मसाले इस मात्रा में पड़े हों जिन्हें देखकर ही मुँह में पानी आये वही भोजन सबसे अच्छा है । इसके विपरीत बहुत से लोग भोजन के नाम पर पापी पेट में जो कुछ माँस, घास, कूड़ा-कर्कट मिल जाये, डाल लेना ही आहार का उद्देश्य समझते हैं ।
भोजन के विषय में यह दोनों मान्यताएँ भ्रमपूर्ण एवं हानिकारक हैं । भोजन का प्रयोजन न तो जिव्हा का स्वाद है और न पेट को पाटना । जो मसालेदार, चटपटे और तले-जले पदार्थों का सेवन करते हैं, उनकी पाचन शक्ति कमजोर हो जाती है और जो निस्सार एवं तत्व हीन भोजन से पेट को पाटते रहते हैं उनका आमाशय शीघ्र ही अशक्त हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप दोनों मान्यताओं वालों को रोगों का शिकार बनना पड़ता है । रोग शरीर के भयानक शत्रु हैं- सभी जानते हैं- किन्तु ऐसा जानते हुए भी उनके मल-मूत्र कारक आहार सम्बन्धी त्रुटियों को दूर करने के लिए तत्पर होने को तैयार नहीं ।
भोजन का एकमात्र उद्देश्य भूख निवृत्ति ही नहीं है, उसका मुख्य उद्देश्य आरोग्य एवं स्वास्थ्य ही है । जिस भोजन ने भूख को तो मिटा दिया किन्तु स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डाला वह भोजन उपयुक्त भोजन नहीं माना जायेगा । उपयुक्त भोजन वही है, जिससे क्षुधा की निवृत्ति एवं स्वास्थ्य की वृद्धि हो ।
विटामिनों की दृष्टि से हरे शाक तथा फल आदि ही स्वास्थ्य के लिए आवश्यक एवं उपयुक्त आहार हैं, । इसके अतिरिक्त क्षार नामक आवश्यक तत्व भी फलों तथा शाकों से पाया जा सकता है । अनाज के छिलकों में भी यह तत्व वर्धमान रहता है किन्तु अज्ञानवश मनुष्य अधिकतर अनाजों को छील-पीसकर यह तत्व नष्ट कर देते हैं ।
कहना न होगा कि प्रकृति जिस रूप में फलों, शाकों तथा अनाजों को पैदा और पकाया करती है, उसी रूप में ही वे मनुष्य के वास्तविक आहार हैं । उनकों न तो अतिरिक्त पकाने अथवा उनमें नमक, शक्कर आदि मिलाने की आवश्यकता है । किन्तु मनुष्य का स्वभाव इतना बिगड़ गया है कि वह शाक-भाजियों तथा अन्न आदि को उनके प्रकृत रूप में नहीं खा सकता । इसके लिए यदि आहार को थोड़ा-सा हल्की आँच पर पका लिया जाये तब भी कोई विशेष हानि नहीं होती । किन्तु जब उनको बुरी तरह तला या जला डाला जाता है तो निश्चय ही उनके सारे तत्व नष्ट हो जाते हैं और वह आहार अयुक्ताहार हो जाता है । जहाँ तक सम्भव हो खाद्य पदार्थों को प्रकृत रूप में ही खाना चाहिये अथवा मंदी आँच या भाप पर थोड़ा- सा ही पकाना चाहिये । मिर्च, मसालों का प्रयोग निश्चय ही हानिकारक है इनका उपयोग तो बिल्कुल करना ही नहीं चाहिए ।
इन सब बातों का मुख्य तात्पर्य यह है कि मनुष्य के लिए उपयुक्त भोजन उसी को कहा जायेगा जिसके विटामिन तथा क्षार आदि तत्व सुरक्षित रहें, जो आसानी से पच जाये और जिसमें अधिक से अधिक सात्विक गुण हों । फल, शाक, मेवा, दूध आदि ही ऐसे पदार्थ हैं, जो मनुष्य के लिए स्वास्थ्यवर्धक आहार हैं ।
इसके साथ ही भोजन के संयम में स्वल्प अथवा तृप्ति तक भोजन करना ही ठीक है, अधिक भोजन से मनुष्य में आलस्य, प्रमाद, शिथिलता आदि ऐसे आसुरी दोष आ जाते हैं, जिनसे न तो वह परिश्रमी रह पाता है और न सात्विक स्वभाव का । असात्विकता अथवा असुरता मनुष्य को पतन की ओर ही ले जाती है । काम, क्रोध, आदि विचारों की प्रबलता भी असंयमित एंव अयुक्त आहार करने से ही होती है । यदि शरीर सब तरह से स्वस्थ एवं शुद्ध है तो मनुष्य का मन निश्चय ही सात्विक रहेगा । सात्विक मन एवं स्वस्थ शरीर के सम्पर्क से आत्मा का प्रसन्न तथा प्रमुदित रहना निश्चित है, जो कि एक दैवी लक्षण है जिसे भोजन के माध्यम से मनुष्य को प्राप्त करने का प्रयास करना ही चाहिए ।
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3.पंच तत्वों द्वारा सम्पूर्ण रोगों का निवारण .....


यह सृष्टि पंच तत्वों से बनी हुई है । प्राणियों के शरीर भी इन पांच तत्वों के ही बने हुए हैं । मिट्टी, पानी, हवा, आग और आकाश इन तत्वों का ही सब कुछ संप्रसार है । जितनी वस्तुऐं दृष्टिगोचर होती हैं या इन्द्रियों द्वारा अनुभव में आती हैं उन सबकी उत्पत्ति पंच तत्वों द्वारा हुई है । वस्तुओं का परिवर्तन, उत्पत्ति, विकास तथा विनाश इन तत्वों की मात्रा में परिवर्तन आने से ही होती है ।
सृष्टि के परमाणु पंच तत्वों से बने हैं और उन्हीं की तन्मात्राओं से इन परमाणुओं में हलचल जारी रहती है । भौतिक जगत की समस्त गति विधि का आधार इन पंच तत्वों की गति शीलता ही है ।
भूमन्डल के विभिन्न भागों में जो विभिन्नताएँ दिखाई देती हैं उनकी मूल में तत्वों का परिवर्तन ही काम करता है । ध्रुव प्रदेशों में शीत की अधिकता है, सदा बर्फ जमी रहती है, वनस्पतियां नहीं उगतीं, कुछ गिने चुने शीत प्रकृति के जीव ही वहाँ रहते हैं । इस विचत्रता का कारण प्रदेश में अग्नि तत्व की कमी होना है । दक्षिण अफ्रिका और दक्षिणी अमरीका में अत्यन्त गर्मी पड़ती है, उन प्रदेशों में पृथ्वी के समान जलती है, दिशाएँ आग उगलती रहती हैं, सूर्य की प्रचण्ड किरणें सरस चीजें की सरसता नष्ट करके उन्हें अपनी ज्वाला में भूनती रहती है। यह प्रदेश भी अपने ढंग के निराले हैं । ध्रुव देश तथा विषुवत रेखा के समीपवर्ती प्रदेशों में जो असाधारण अन्तर है उसका कारण अग्नि तत्व की न्यूनता और अधिकता है । अरब में आने वाले तूफान वहां वायु तत्व की अधिकता प्रकट करते हैं । आसाम एवं पूर्वी द्वीप समूहों में वर्षा की अधिकता जल तत्वों की अधिकता का सूचक है । घने जंगल, दलदल, विचित्र-विचित्र पौधें और जीव-जन्तु, खनिज पदार्थ, आदि विभिन्नताओं का कारण उन प्रदेशों की तात्विक न्यूनाधिकता ही है ।
यह प्रसिद्ध है कि जल वायु का स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है । योरोपियन ठण्डे मुल्कों का रंग रूप,कद,स्वास्थ्य, अफ्रीका निवासीयों के रंग, रूप और स्वास्थ्य से सर्वथा भिन्न होता है । पंजाबी, काश्मीरी, बंगाली और मद्रासी लोगों के शरीर एवं स्वास्थ्य की भिन्नता प्रत्यक्ष है । यह जलवायु का अन्तर है । किन्ही स्थानों मे मलेरिया, पीला बुखार पेचिस, चर्मरोग, फील पांव, कुष्ट आदि रोंगों की बाढ़ सी रहती है और किन्हीं स्थानों का जलवायु ऐसा होता है कि वहाँ जाने पर तपैदिक सरीखे कष्ट साध्य और असाध्य रोग भी अच्छे हो जाते हैं । यही बात पशुओं के सम्बन्ध में हैं, हिसार की गाय और निजामाबाद की गाय में जमीन आसमान का अन्तर देखा जाता है। यही प्रभाव खाद्य पदाथों पर पड़ता है ।
गेहूं, चावल, दूध, घी, मछली, चाय, सागभाजी, औषधि, वनस्पति आदि के गुण और स्वाद में अन्तर के हिसाब से फर्क पड़ता है । प्रादेशिक अन्तर का कारण, उन स्थानों में तत्वों की न्यूनता एवं अधिकता ही है ।
शरीरों में तत्वों की मात्रा के अन्तर के हिसाब से देह का ढांचा और स्वभाव बनता है । पुत्र कन्या की उत्पत्ति का आधार स्त्री पुरुषों में तत्वों की न्यूनताधिकता का होना है । ऋतुओं के प्रभाव के कारण स्वास्थ्य में लगने वाले झटकों का अस्तित्व भी इसी बात पर अवलम्बित है । किसी को कोई मौसम अनुकूल पड़ता है तो किसी को कोई,किसी के लिए एक वस्तु रूचिकर एवं हितकर होती है तो किसी के लिए कोई । यह बातें प्रकट करती हैं, कि इन मनुष्यों में तत्वों की मात्रा में भिन्नता है ।
रोगी होना और निरोग रहना यह भी तत्वों की स्थिति पर निर्भर करता है । आहार-विहार की असावधानी के कारण तत्वों का नियत परिणाम घट बढ़ जाता है ।
फलस्वरूप बीमारी खड़ी हो जाती है । वायु की मात्रा में अन्तर आ जाने से गठिया, लकवा, दर्द कम्पन, अकड़न, गुल्म, हडफूटन, नाड़ी, विक्षेप आदि रोग उत्पन्न होते हैं । अग्नि तत्व के विकार से फोड़े, फुन्सी, रक्त पित्त, हैजा, दस्त, क्षय, स्वांस, उपदंश, वाह, खून फिसाद आदि बढ़ते हैं । जल तत्व की गड़बड़ी से जलोदर, पेचिश, संग्रहणी, बहुमूत्र प्रमेह, स्वप्नदोष, सोम , प्रदर, जुकाम, खांसी, जैसे रोग पैदा होते हैं । पृथ्वी तत्व बढ़ जाने से फीलपांव,तिल्ली, जिगर, रसौली, भेदवृद्ध, मोटापा आदि रोग होते हैं । आकाश तत्व के विकार से मूच्छार् मृगी, उन्माद, पागलपन,सनक, अनिद्रा, बहम, घबराहट, दुःस्वप्न, गूँगापन, बहरापन, विस्मृति, आदि रोगों का आक्रमण होता है । दो, तीन या चार पांच तत्वों के मिश्रित विकारों से विकारों की मात्रा के अनुसार अनेकानेक रोग उत्पन्न होते हैं ।
अग्नि की मात्रा कम हो जाय तो शीत जुकाम नपुंसकता, गठिया, मन्दाग्नि, शिथिलता, सरीखें रोग उठ खड़े होते हैं और यदि उसकी मात्रा बढ़ जाय तो चेचक, ज्वर, फोड़े सरीखे रोगों, की उत्पत्ति होती है इसी प्रकार अन्य तत्वों की कमी हो जाना, बढ़ जाना अथवा विकृत हो जाना रोगों का हेतु बन जाता है । शरीर पंच तत्वों का बना है यदि सब तत्व अपनी नियत मात्रा में यथोचित रूप से रहें तो बीमारियों का कोई कारण नहीं रहता । जैसे ही इनकी उचित स्थिति में अन्तर आता है वैसे ही रोगों का उद्भव होने लगता है । रसोई का स्वादिष्ट और लाभदायक होना इस बात पर निर्भर है कि उसमें पड़ने वाली चीजें नियत मात्रा में हों । चावल, दलिया, दाल, हलुआ, रोटी आदि में यदि अग्नि ज्यादा कम लगे, पानी ज्यादा या कम पड़ जाय, नमक, चीनी, घी आदि की मात्रा बहुत कम या बहुत ज्यादा हो जाय तो उस भोजन का स्वाद गुण और रूप बिगड़ जाता है यही दशा शरीर की है तत्वों की मात्रा में गड़बड़ी पड़ जाने से स्वास्थ्य में निश्चित रूप से खराबी आ जाती है ।
जिस कारण से कोई विकार पैदा हुआ हो उस कारण को दूर करने से वह विकार भी दूर हो जाता है । कांटा लग लाने से दर्द हो रहा हो तो उस कांटे को निकाल देने से दर्द भी बन्द हो जाता है । मशीन में तेल न होने के कारण वह भारी चल रही हो और आवाज कर रही हो तो उसके कल पुर्जों में तेल डाल देने से वह खराबी दूर हो जाती है । दीवार में से ईंट निकल जाय तो वहां ईंट लगानी पड़ती है और जहां से चूना निकल गया हो वहां चूना लगा देने से मरम्मत हो जाती है । यही बात स्वास्थ्य सुधार के बारे में भी है । जिस तत्व की न्यूनता अधिकता या विकृति से वह गड़बड़ी पैदा हुई हो उसे सुधार देने से सारा संकट टल जाता है ।
तत्व चिकित्सा का यही आधार है, पांच तत्वों के बने शरीर को निरोग बनाने के लिए पंच तत्वों द्वारा चिकित्सा करना ही सबसे अच्छा उपाय है । इस उपाय से सुविधा पूर्वक बीमारियों का निवारण हो जाता है ।



4.जड़ीबूटियों द्वारा चिकित्सा......

आज सभ्यता की घुड़दौड़-आपाधापी ने मनुष्य को स्वास्थ्य के विषय में इस सीमा तक परावलम्बी बना दिया है कि वह प्राकृतिक जीवन क्रम ही भुला बैठा है । फलतः आए दिन रोग शोकों के विग्रह खड़े होते रहते हैं व छोटी-छोटी व्याधियों के नाम पर अनाप-शनाप धन नष्ट होता रहता है । मनुष्य अंदर से खोखला होता चला जा रहा है । जीवनी शक्ति का चारों ओर अभाव नजर आता है । मौसम में आए दिन होते रहने वाले परिवर्तन उसे व्साधिग्रस्त कर देते हैं, जबकि यही मनुष्य 25 वर्ष पूर्व तक इन्हीं का सामना भलीभाँति कर लेता था । आज शताधिकों की संख्या उंगलियों पर गिनने योग्य है । जबकि हमारे पूर्वज कई वर्षों तक जीवित रहते थे, उनके पराक्रमों की गाथाएँ सुनकर हम आश्चर्यचकित रह जाते हैं ।
आहार-विहार में समाविष्ट कृत्रिमता ने जिस प्रकार जिस सीमा तक शरीर के अंग अवयवों को अपंग-असमर्थ बनाया, उसी प्रकार चिकित्सा क्रम भी बनते चले गए । पूर्वकाल में आर्युवेद ही स्वास्थ्य संरक्षण का एकमात्र माध्यम था । धीरे-धीरे वृहत्तर भारत में समाविष्ट अन्य संस्कृतियों के साथ यहाँ अन्य पैथियाँ भी आयीं और आज चिकित्सा के नाम पर ढेरों पद्धतियाँ प्रयुक्त होती हैं । मनुष्य बुद्धिमान हुआ है, निदान के ढंग सोच लिए गए हैं, जीवाणु-विषाणुओं के देखने पहचानने के यंत्र बना लिए गए हैं, परन्तु औषधियों की मारक क्षमता व उन पर अवलम्बन के दुष्परिणामों ने एक बार फिर यह सोचने पर विवश कर दिया है कि क्या यही मनुष्य की नियति है?
इसे दुर्योग ही कहें कि आयुर्वेद जैसी विशुद्ध चिकित्सा प्रणाली पर भी गत दशाब्दियों में वज्रपात ही हुआ है । इसे भी आधुनिक बनाने की ललक में आतुर गिने चुने विद्वानों ने इसकी उपयोगिता और भी कम कर दी है । आज जहाँ आर्युवेद के योगों पर से लोगों का विश्वास घटता चला जा रहा है, वहाँ तुरन्त ठीक होने की आवेशपूर्ण जल्दबाजी ने उन्हें एलोपैथी की मारक औषधियों का गुलाम बना दिया है ।
होम्योपैथी, कोमोपैथी, यूनानी, तिब्बी-सिद्धि, योग चिकित्सा, सूर्य चिकित्सा, कल्क चिकित्सा, टेलीथेरेपी, काष्मिक रे थेरेपी, मैग्न्रेटोथेरेपी, एकूपंचर, एरोमा थेरेपी, हिप्नोथेरेपी इत्यादि अनेकों प्रकार की पद्धतियाँ प्रचलित होते हुए भी निकाली जाए, मानवता को स्वास्थ्य संकट से मुक्ति दिलायी जाए । जितनी ही यह मांग बढ़ रही है, उतनी ही मात्रा में व्याधियों की संख्या व भिन्नता भी । 'ड्रग रेजिस्टेन्स' एवं 'ड्रग डिपेण्डेन्स' जैसी समस्याओं ने वैज्ञानिक जगत को उद्वेलित किया व एक नितांत सुरक्षित, प्राकृतिक जीवन क्रम से मिलती-जुलती सहज सुलभ चिकित्सा पद्धति के आविष्कार हेतु विवश किया है ।
यह एक विडम्बना ही है कि जिन वनौषधियों के प्रयोग के कारण भारतवर्ष की विशिष्टता एवं सम्पन्नता आंकी जाती थी उनके प्रयोग को भारतवासी ही भुला बैठे हैं । पश्चिम जर्मनी, हंगरी, सोवियत रूस, इण्डोनेशिया, चीन, जापान जैसे देशों में जहाँ जड़ी बूटियों से चिकित्सा पर अनुसंधान कार्य होकर सफल प्रयोग भी किए जा रहे हैं । आयुर्वेद वनौषधि संपदा की गरिमा भुला देने का कारण कहीं खोजा जाए तो इसे मात्र बौद्धिक परावलम्बन ही कहा जाएगा ।
वैक्सीन्स, मारक एण्टीबायोटिक्स, रेडिएशन, तथाकथित स्वास्थ्य संवर्धक विटामिन हारमोन्स गणों के घातक दुष्परिणामों पर सभी विचारशीलों ने गहराई से सोचा है, वे इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि यदि कोई निरापद जीवनीशक्ति संवर्धन औषधियाँ ही हैं । आहार-विहार के सामान्य नियमों का पालन करते श्रम व्यायाम को जीवन में स्थान देते हुए मनुष्य सहज ही अपनी अंतः की सामर्थ्य को बढ़ा व प्रखर बना सकता है । आधि-व्याधियों से रोकथाम हेतु आवश्यकता आ ही पड़े तो चारों ओर सहज ही उपलब्ध वनौषधियों से वह अपनी चिकित्सा भी करता रह सकता है । वह पद्धति हानि रहित तो है ही, आर्थिक दृष्टि से भी हमारे जैसे विकासशील राष्ट्र के लिए एक मात्र अवलंबन भी है ।
उपलब्ध आधुनिक औषधियों को उपेक्षा से तो नहीं देखा जाना चाहिए पर जरा शब्दार्थ की दृष्टि से एलोपैथी शब्द का विवेचन कर लिया जाए तो कोई हानि नहीं । एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका 1961 के अनुसार एलोपैथी वह चिकित्सा पद्धति है जो औषधि के प्रयोग द्वारा उस व्याधि के अतिरिक्त अन्य नए लक्षण पैदा करती है । भावार्थ यही है कि एक बीमारी का उपचार अन्यान्य रोगों को जन्म देता है ।