Gayatri Pariwar

   गायत्री परिवार (Mission&Vision)

सुधा बीज बोने से पहिले, काल-कूट पीना होगा ।
पहिन मौत का मुकुट, विश्व-हित मानव को जीना होगा॥

पिछले दिनों भौतिक विज्ञान व बुद्धिवाद का जो विकास हुआ है । उसने मानव जाति के हर पहलू को भले या बुरे रूप में प्रभावित किया है । लाभ यह हुआ कि वैज्ञानिक आविष्कारों से हमें बहुत सुविधा-साधन मिले और हानि यह हुई कि विज्ञान के प्रत्यक्षवादी दर्शन से प्रभावित बुद्धि ने आत्मा, परमात्मा, कर्मफल एवं परमार्थ के उन आधारों को डगमगा दिया जिन पर नैतिकता, सदाचरण एवं उदारता अवलम्बित थी । धर्म और अध्यात्म की अप्रामाणिकता एवं अनुपयोगिता विज्ञान ने प्रतिपादित की । इससे प्रभावित प्रबुद्ध वर्ग ओछी स्वार्थपरता पर उतर आया । आज संसार का धार्मिक, सामाजिक एवं राजनैतिक नेतृत्व जिनके हाथ में है उन अधिकांश वक्तियों आदर्श संकीर्ण स्वार्थों तक सीमित हैं । विश्व कल्याण को दृष्टि में रखकर उदार व्यवहार करने का साहस उनमें रहा नहीं, भले ही वे बढ़-चढ़कर बात उस तरह की करें । ऊँचे और उदार व्यक्तित्व यदि प्रबुद्ध वर्ग में से नहीं निकलते और उस क्षेत्र में संकीर्ण स्वार्थपरता व्याप्त हो जाती है, तो उससे नीचे वर्ग, कम पढ़े और पिछड़े लोग अनायास ही प्रभावित होते हैं । संसार में कथन की नहीं, क्रिया की प्रामाणिकता है । बड़े कहे जाने वाले जो करते हैं, जो सोचते हैं, वह विचारणा एवं कार्य पद्धति छोटे लोगों के विचारों में, व्यवहार में आती है ।
इन दिनों कुछ ऐसा ही हुआ है कि आध्यात्मिक आस्थाओं से विरत होकर मनुष्य संकीर्ण-स्वार्थों की कीचड़ में फँस पड़ा है । बाहर से कोई आदर्शवाद की बात भले कहता दीखे, भीतर से उसका क्रिया-कलाप बहुत ओछा है । एक दूसरे में यह प्रवृत्ति छूत की बीमारी की तरह बढ़ी और अनाचार का बोलबाला हुआ । परिणाम सामने है; रोग, शोक, कलह, क्लेश, पाप, अपराध, शोषण, अपहरण, छल, प्रपंच की गतिविधियाँ बढ़ रही हैं और इन परिस्थितियों को बदलने एवं सुधारने की आवश्यकता है । मानवता को प्यार करने वाले हर सजग एवं विवेकवान् व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह समय की समस्याओं को समझे और व्यक्ति एवं समाज को अवनति से रोक, प्रगति के लिए जो संभव हो सके, वह करे । विचार क्रान्ति अभियान एवं युग निर्माण योजना सजग आत्माओं की एक ऐसी ही क्रमबद्ध विचारणा तथा कार्य पद्धति है जिसके आधार पर वर्तमान शोक-संताप भरी परिस्थितियाँ बदला जाना संभव है ।

व्यक्ति एक यंत्र है जो मान्यताओं व आस्था के ईंधन से गतिशील होता है । पिछले दिनों हमें अनास्था की प्रेरणा मिली उसे अपनाया गया और दुष्परिणाम देखा । अब मार्ग एक ही है कि विचार पद्धति को बदलें, आस्थाओं को पुनः परिष्कृत करें और लोगों को ऐसी गतिविधियाँ अपनाने के लिए समझाएँ, जो वैयक्तिक एवं सामूहिक सुख-शांति की स्थिरता में अनादिकाल से सहायक रही हैं और अंत तक रहेंगी । जनमानस की इसी परिवर्तन प्रक्रिया का नाम युग निर्माण योजना है ।

कथित ऊँचे नेतृत्व से निराश होकर हम सीधे जन-सम्पर्क पर विश्वास करते हैं और सोचते हैं कि आज के तथा कथित बड़े लोगों से कुछ आशा करने की अपेक्षा जनता से काम लिया जाए, तो ऐसे नए व्यक्तित्व निकल सकते हैं, जो विश्व की परिस्थितियों को बदलें । इसी प्रकार जनता को अपने विचार एवं कार्य बदलने की प्रेरणा देकर वह वातावरण पैदा किया जा सकता है कि आगे बढ़ने वाले थोड़े से लोग पीछे वालों का पथ प्रदर्शन करें और अनुकरण के लिए उनका रास्ता साफ करें । जन-सम्पर्क से हमने एक विचार परिवार बनाया है । उसी को लेकर जनमानस का भावनात्मक नव-निर्माण प्रारम्भ किया गया है । इस परिवार में विभिन्न स्तर के, विभिन्न परिस्थितियों के एवं विभिन्न योग्यताओं के नर-नारी हैं । उन सभी का योगदान भविष्य निर्माण की अपनी योजना में हो; अस्तु १९६३ में एक शत सूत्री योजना बनायी गई, एक सौ कार्यक्रम रखे गए और कहा गया कि परिजनों में से जो जिस कार्य को कर सकता हो, उन्हें अपनाएँ और अपने प्रभाव क्षेत्र में कुछ सुधारने, बनाने की अभिनव उमंग पैदा करें ।
आरम्भ छोटे रूप में हुआ है, पर विश्वास है कि यह प्रक्रिया एक से दूसरे के पास जाकर अतिव्यापक बनेगी और असंख्य ऐसी रचनात्मक प्रवृत्तियाँ सामने आयेंगी, जिनसे व्यक्ति एवं समाज के वर्तमान स्वरूप का कायाकल्प हो सके ।
इस योजना के पीछे एक दैवी प्रेरणा सन्निहित है, जो लघु से महान् बनाने की सम्भावनाओं एवं शक्तियों से परिपूर्ण है । थोड़े समय में जो प्रगति हुई है उसे देखते हुए लगता है कि निकट भविष्य में यह आंदोलन एक ऐसा जन-आंदोलन बनेगा जिससे धरती पर स्वर्ग का अवतरण और मनुष्य में देवत्व के उदय का स्वप्न साकार हो सके । ईश्वर तेरी इच्छा पूर्ण हो ।
युग निर्माण योजना का प्रधान उद्देश्य है - विचार क्रान्ति । मूढ़ता और रूढ़ियों से ग्रस्त अनुपयोगी विचारों का ही आज सर्वत्र प्राधान्य है । आवश्यकता इस बात की है कि (१) सत्य (२) प्रेम (३) न्याय पर आधारित विवेक और तर्क से प्रभावित हमारी विचार पद्धति हो । आदर्शों को प्रधानता दी जाए और उत्कृष्ट जीवन जीने की, समाज को अधिक सुखी बनाने के लिए अधिक त्याग, बलिदान करने की स्वस्थ प्रतियोगिता एवं प्रतिस्पर्धा चल पड़े । वैयक्तिक जीवन में शुचिता-पवित्रता, सच्चरित्रता, ममता, उदारता, सहकारिता आए । सामाजिक जीवन में एकता और समता की स्थापना हो । इस संसार में एक राष्ट्र, एक धर्म, एक भाषा, एक आचार रहे; जाति और लिंग के आधार पर मनुष्य-मनुष्य के बीच कोई भेदभाव न रहे । हर व्यक्ति को योग्यता के अनुसार काम करना पड़े; आवश्यकतानुसार गुजारा मिले । धनी और निर्धन के बीच की खाई पूरी तरह पट जाए । न केवल मनुष्य मात्र को वरन् अन्य प्राणियों को भी न्याय का संरक्षण मिले । दूसरे के अधिकारों को तथा अपने कर्तव्यों को प्राथमिकता देने की प्रवृत्ति हर किसी में उगती रहे; सज्ज्ानता और सहृदयता का वातावरण विकसित होता चला जाए, ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करने में युग निर्माण योजना प्राणपण से प्रयतनशील है ।
''अगले दिनों विश्व को समता एवं एकता की ओर जाना होगा । ''वसुधैव कुटुम्बकम्'' की मान्यताओं पर नया विश्व, नया समाज बनेगा । सारी दुनिया का एक राष्ट्र बनेगा, सुविधा की दृष्टि से प्रान्तों जैसे देश बने रहेंगे । मनुष्य की एक जाति होगी । ऊँच-नीच, जाति-पाँति के भेदभाव समाप्त हो जाएँगे । उपजातियों का वर्गीकरण उपहासास्पद बन जाएगा । सारी दुनिया एक भाषा बोलेगी और सबके लिए एक धर्म, एक आचरण एवं एक कानून होगा । भोजन वस्त्र को सभ्यता माना जाता हो, तो सुविधा और साधनों की दृष्टि से वह अलग भी रह सकता है; पर संस्कृति समस्त मानव जाति की एक होगी । धन व्यक्तिगत न रहेगा, उस पर समाज का स्वामित्व होगा; न कोई धनी रहेगा, न गरीब । सब भरपूर परिश्रम करेंगे और उपलब्ध साधनों का सभी समान रूप से हँसी-खुशी के साथ उपयोग करेंगे । आस्तिकता की व्याख्या में ईश्वर के समदर्शी, सर्वव्यापक और न्यायकारी होने की मान्यता को प्रमुखता मिलेगी । भक्तों की मनोकामनाएँ पूर्ण करते फिरने वाला आज का बहुदेववाद मर जाएगा । कुकर्मों से रुष्ट और सद्भावना से प्रसन्न होने वाले ईश्वर को सब अपनी भावनाओं और क्रियाओं के द्वारा सम्पूजित किया करेंगे । उपासना के कर्मकाण्ड संक्षिप्त रह जाएँगे और वे समस्त विश्व के लिए एक जैसे होंगे । देशभक्ति, जाति-भक्ति, भाषा-भक्ति का विश्व भक्ति में विकास हो जाएगा । मानवों की तरह तब पशु-पक्षी भी समाज क्षेत्र में आ जाएँगे और उनका उत्पीड़न भी अपराध बन जाएगा । आशा करनी चाहिए कि ऐसा युग जल्दी ही आ रहा है । उसी की पूर्व भूमिका युग निर्माण योजना सम्पादित कर रही है । अभी कुछ दिनों तो अनेकों स्वार्थ-संघर्ष और तीव्र होंगे तथा संकीर्णता और अनाचार के दुःखद परिणामों को भली-भाँति अनुभव करके लोग उनसे विरत होने के लिए स्वयं आतुर होंगे । अगली आचार संहिता उन तथ्यों पर आधारित होगी जिनका हम लोग अभी युग निर्माण सत्संकल्पों के रूप में नित्य पाठ करते हैं । एक दिन इस जीवन पद्धति पर विश्व के सभी धर्म और देश चलने लगेंगे । नवयुग के अभिनव निर्माण के लिए हमें व्यक्तिगत और सामूहिक प्रयतनों में तत्काल जुट जाना चाहिए और महाकाल के प्रयोजन में अपना हार्दिक योगदान अर्पित करना चाहिए।
युग निर्माण योजना एक दिव्य योजना है । मोटी बुद्धि से इस प्रयास को मानुषी समझा जा सकता है, पर वस्तुतः उसके पीछे अतिमानवी शक्तियाँ ही काम कर रही हैं । सृष्टा निराकार होने के कारण प्रत्यक्षतः कम्हार की तरह संरचना करते नहीं देखा जाता । महान् कार्य महान् व्यक्तियों द्वारा सम्पन्न होते रहे हैं । जो सृजन, परिपोषण और परिपालन के लिए पूरी तरह उत्तरदायी है, वो समय-समय पर धर्म की हानि और अधर्म की बाढ़ को रोकने के लिए अपनी ऊर्जा के अनोखे प्रयोग करता है । महत्तवपूर्ण कार्य भगवान् करते हैं और उसके श्रेय को शरीरधारी मुफ्त में ही प्राप्त कर लेते हैं । चेतना काम करती है और शरीर को श्रेय मिलता है । ईश्वरेच्छा तथा मानवीय पुरुषार्थ का समन्वय ही चमत्कार उत्पन्न करता है । युग निर्माण अभियान में मानवीय पुरुषार्थ को जाग्रत करने, प्रखर बनाने तथा उसे सही दिशा में सही ढंग से प्रयुक्त करने की प्रक्रिया सतत चल रही है । ईश्वरीय मार्गदर्शन, अनुग्रह, अनुकम्पा एवं सहायता की स्पष्ट झलक युग निर्माण योजना द्वारा सम्पन्न हुए अगणित लोकोपयोगी कार्यों, उपलब्िधयों तथा वर्तमान हलचलों में मिलती है । इतने बड़े कार्य व्यक्ति विशेष के पुरुषार्थ से नहीं, वरन् दैवी प्रेरणा और अनुकम्पा के आधार पर ही आश्चर्यजनक रूप से ही विकसित, विस्तृत एवं सफल होते रहे हैं ।
युगऋषि पं० श्री राम शर्मा आचार्य (युग निर्माण योजना के प्रवर्तक) के शब्दों में ''वर्तमान युग परिवर्तन किसी व्यक्ति विशेष की योजना नहीं है । इसके पीछे महाकाल का दुर्घर्ष संकल्प काम कर रहा है । प्रकृति ने नई संरचना के लिए उपयुक्त वातावरण बनाना प्रारम्भ कर दिया है । इन दिनों एक प्रचण्ड शक्तिशाली जाज्वल्यमान तारक प्रगट हो रहा है, जिसकी लपलपाती लपटें संसार भर के जीवंत और संवेदनशील मनुष्यों को झकझोर कर खड़ा करेगी और कार्य क्षेत्र में उतरने के लिए बाधित करेगी । यह देव समुदाय देखने में भले ही रीछ-बानरों जैसा हो, पर पुरुषार्थ ऐसा करेगा, जिसे असंभव को संभव बनाने जैसा माना जा सके । ईश्वर विश्वासी जानते हैं कि भगवान् का अनुग्रह जहाँ साथ है, वहाँ असंभव जैसी कोई चीज शेष नहीं रह जाती । जब आवेश की ऋतु आती है, तो जटायु जैसा जीर्ण-शीर्ण भी रावण जैसे महायोद्धा के साथ निर्भय होकर लड़ पड़ता है । गिलहरी श्रद्धामय श्रमदान देने लगती है और सर्वथा निर्धन शबरी अपने संचित बेरों को देने के लिए भाव विभोर होती है । सुदामा को भी तो अपनी चाँवल की पोटरी समर्पित करने में संकोच बाधक नहीं हुआ था । यह अदृश्य में लहराता देव प्रवाह है, जो नव सृजन के देवता (महाकाल/प्रज्ञावतार) की झोली में समयदान, अंशदान ही नहीं, अधिक साहस जुटाकर हरिशचन्द्र की तरह अपना राजपाठ और निज का, स्त्री-बच्चों का शरीर तक बेचने में आगा-पीछा नहीं सोचता । दैवी आवेश जिस पर भी आता है, उसे बढ़-चढ़कर आदर्शों के लिए समर्पण कर गुजरे बिना चैन ही नहीं पड़ता । यही है महाकाल की वह अदृश्य अग्नि शिखा जो चर्म चक्षुओं से तो नहीं देखी जा सकती है, पर हर जवंत व्यक्ति से समय की पुकार कुछ महत्तवपूर्ण पुरुषार्थ कराए बिना छोड़ने वाली नहीं है । ऐसे लोगों का समुदाय जब मिल-जुलकर अवांछनीयताओं के विरूद्ध निर्णायक युद्ध छेड़ेगा और विश्वकर्मा की तरह नई दुनिया बनाकर खड़ी करेगा, तो अंधे भी देखेंगे कि कोई चमत्कार हुआ । पतन के गर्त में तेजी से गिरने वाला वातावरण किसी वेधशाला से छोड़े गए उपग्रह की तरह ऊँचा उठकर अपनी नियत कक्षा में द्रुतगति से परिभ्रमण करने लगेगा । इस युग का अवतार हर किसी को दो संदेश सुनाएगा । एक आत्म परिष्कार और दूसरा सत्वृत्तियों का संवर्धन । ध्वंस और सृजन की यह दोहरी प्रक्रिया इन्हीं दिनों तेजी से चलेगी और निरर्थक टीलों को गिराती भयंकर खड्डों को पाटती हुई सब कुछ समतल करती चली जाएगी, ऐसा समतल जिस पर नंदनवन और चंदनवन जैसे अगणित उद्यान लगाए जा सकें ।''
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महाकाल की कार्यशैली....

  इसको स्पष्ट करते हुए पूज्य गुरुजीने अखंड ज्योति जनवरी - १९७४, पृष्ठ-५७ पर स्पष्ट किया है कि ''भावी महाभारत अपने अलग ही युद्ध कौशल से लड़ा जाएगा । उसमें पिछले ढंग की रणनीति काम न देगी । निहित स्वार्थों में इतने अधिक लोग ओत-प्रोत हो रहे हैं कि उसने लोकप्रियता की रेशमी चादर अच्छी तरह लपेट रखी है । हमें जिन अज्ञान, अनाचार और अभाव के असुरों से लड़ना है, उनका छद्मवेश बहुत ही विकराल है । वे न तो दीख पड़ते हैं और न सामने आते हैं । उनकी सत्ता भगवान् की तरह व्यापक हो रही है । अज्ञान - ज्ञान की आड़ में छिपकर बैठा है, अनाचार को पकड़ना कठिन पड़ रहा है, अभावों का जो कारण समझा जाता है वस्तुतः उससे भिन्न ही होता है । ऐसी दशा में हमारी लड़ाई व्यक्तियों से नहीं अनाचार से होगी । रोगियों को नहीं हम रोगों को मारेंगे । पत्ते तोड़ते फिरने की अपेक्षा जड़ पर कुठाराघात करेंगे । व्यक्तियों पर आक्षेप करने की अपेक्षा हम प्रवाहों से जूझेंगे, धाराओं को मोड़ेंगे, पाखण्डों की पोल खोलेंगे और अनाचार का विरोध करेंगे । उसके समर्थन में जो भी लोग होंगे वे सहज ही लपेट में आ जाएँगे और औंधे मुँह गिर कर मरेंगे । आज इन लोगों को जनता की अज्ञानता का लाभ लेकर श्रेय सम्मान और धन वैभव दोनों हाथों से समेटने का अवसर है, कल इन्हें सड़क पर चलना और भले लोगों की पंक्ति में सिर उठाकर चल सकना कठिन हो जाएगा । हम जन आक्रोश का ऐसा वातावरण पैदा करेंगे जहाँ भी छद्म बनकर अनाचार छिपता है उन सभी छिद्रों को बन्द करके रहेंगे ।
व्यापारिक क्षेत्र में, सरकारी मशीनरी में, राजनेताओं में, चिकित्सकों में, शिक्षकों में यहाँ तक की हर वर्ग में, हर व्यक्ति में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अनाचार की जड़ें अत्यंत गहराई तक घुसती चली गयी हैं । इसमें एक-एक को चुनना संभव नहीं, किसी का दोष सिद्ध करना भी कठिन है । ऐसी दशा में व्यक्तियों से नहीं धाराओं से हम लड़ेंगे । हर दुष्प्रवृत्ति का भण्डाफोड़ करेंगे और वह ऐसा तीखा होगा कि सुनने वाले तिलमिला उठें और उसमें प्रवृत्ता लोगों के लिए मुँह छिपाना कठिन हो जाय । जन आक्रोश ही इतने व्यापक भ्रष्ठाचार से लड़ सकता है । हम उसी को उभारने में लगे हैं । समय ही बताएगा कि हमारा संघर्ष कितना तीखा और कितना बांका होगा । बौद्धिक क्रान्ति की, नैतिक क्रान्ति की, सामाजिक क्रान्ति की दावानल इतनी प्रचंडता पूर्वक उभारी जाएगी कि उसकी लपटैं आकाश चूमने लगें । अज्ञान और अनाचार का कूड़ा-करकट उसमें जलकर ही रहेगा ।'' यह सब साकार होते हुए अब स्पष्ट दिखने लगा है ।
महाकाल का कार्यक्षेत्र क्षेत्र विशेष, वर्ग विशेष अथवा सम्प्रदाय विशेष नहीं है; बल्कि पूरी दुनिया हैं । उनकी चेतना एक साथ हर जीवंत, जाग्रत आत्मा पर कार्य कर रही है । जुलाई-१९८४ की अखण्ड ज्योति, पृष्ठ - २५ में उन्होंने स्पष्ट उल्लेख किया है कि सूक्ष्मीकरण साधना के उनकी चेतना किस प्रकार से कार्य करेगी - उन्ही के शब्दों में ''प्रज्ञा परिवार में कोई बीस लाख के लगभग सदस्य हैं, जिनमें से अधिकांश भारतवर्ष में हैं और हिन्दू धर्मावलम्बी हैं; किन्तु वह मध्यम वर्ग जो हमारे काम आएगा, तो समस्त विश्व में फैला हुआ है, जिनके साथ हम अभी प्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं साध सके । अब हम इस समुदाय से सघन सम्पर्क बना सकेंगे । आवश्यक नहीं कि इसके लिए प्रज्ञा अभियान का, गायत्री परिवार का नाम वे जानें, पर वे निश्चित रूप से यह अनुभव करेंगे कि कहीं से किन्हीं के माध्यम से ऐसी विचारधारा बहती हुई आती है, जो उन्हें अनायास ही अपने लपेट में लेती है । कुछ कहती है और कुछ करने के लिए मजबूर करती है ।'' यही है महाकाल की चेतना के कार्य करने का तरीका, जो हर कार्य क्षेत्र की प्रतिभाओं को झकझोर रही है तथा जिससे निकल भागना अब मनुष्य के हाथ की बात नहीं । अतः वे सब प्रतिभाएँ जिनमें बीज रूप में संवेदनाएँ मौजूद हैं, युग निर्माण का कार्य करेंगी । भले ही वह किसी भी सम्प्रदाय की हों, किसी भी कर्मकाण्ड में विश्वास रखती हों ।
कार्यप्रणाली - धर्मतंत्र से लोकशिक्षण
भारत की ७५% जनता देहातों में रहती है । यहाँ अशिक्षितों की संख्या एक तिहाई है । यही है भारत का असली स्वरूप, असली बहुमत । शिक्षा का अभाव (७७% अशिक्षित) छोटे देहातों में यातायात साधनों से रहित आबादी, पिछड़ेपन का वातावरण; इस स्थिति में राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशस्त्र आदि के आधार पर यदि कुछ कहा, समझा जाए, तो जनता इसे हृदयंगम नहीं कर सकेगी । हमें जो कुछ भी इस बहुमत ७५% जनता से कहना है, वह उसके बौद्धिक स्तर से तालमेल मिलाते हुए ही कहना चाहिए; तभी उसे ठीक तरह समझा और हृदयंगम किया जा सकेगा । गाँधीजी अपनी जनता का मनःस्तर जानते थे; उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में धार्मिकता का समावेश किया और इसे एक प्रकार से धार्मिक आंदोलन जैसा रूप दिया था । रामराज्य-धर्मराज्य, गौरक्षा, रामधुन, कीर्तन, सत्य, अहिंसा, जैसे धार्मिक तथ्यों को आंदोलन में जोड़ा तथा स्वयं एक संत-महात्मा के कलेवर में जनता के सामने आए । यही कारण था कि भारतीय इतिहास में सबसे व्यापक व सफल आंदोलन गाँधीजी द्वारा संचालित सत्याग्रह आंदोलन ही माना गया है । यदि उसमें धार्मिकता का पुट न रहा होता, विशुद्ध राजनीति के आधार पर कदम बढ़ाए गए होते, तो उसे इतनी सफलता मिलना सर्वथा संदिग्ध था । अभी भी जनमानस उसी स्तर का है । इस देश का बौद्धिक आधार धार्मिकता से जुड़ा हुआ है । इस स्तर की जनता को उसकी परम्परागत मनोभूमि धर्म रूचि के सहारे ही प्रभावित किया जा सकता है । इस आधार पर कुशल मार्गदर्शक कुछ भी तथ्य इस पिछड़े वर्ग के मनों पर उतार सकते हैं । रामायण, भागवत, गीता, पुराण आदि का सहारा लेकर इस देश की अधिकांश जनता के मन में महत्तवपूर्ण तथ्यों को खूबी के साथ बिठाया जा सकता है, उतना और किसी प्रकार सम्भव नहीं हो सकता; यही सब तथ्य हैं जिनके आधार पर व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण की गतिविधियों को अग्रगामी बनाने के लिए ऐसे भावनाशील लोग ढँूढ़कर निकाले गए हैं, सम्बद्ध किए गए हैं, जो विश्व मानव की सेवा को ईश्वर की उपासना मानते हैं; लोकमंगल के प्रयास में धर्मनिष्ठा की सार्थकता जोड़ते हैं । यही है युग निर्माण योजना, उसकी कार्य पद्धति और साधन-सामग्री जिसके आधार पर नवयुग के आगमन का, मनुष्य में देवत्व के उदय का, धरती पर स्वर्ग के अवतरण का कार्य चल रहा है ।
युग निर्माण मिशन व योजना के संस्थापक व सूत्र संचालक युगऋषि पं० श्रीराम शर्मा आचार्य ने इस युग के ३ प्रमुख महादैत्य बताए हैं- अज्ञान, अभाव व अनाचार जिससे मानवता पीड़ित है । उन्होंने युग निर्माण योजना की कार्य पद्धति को ३ भागों में विभक्त किया है ।
(१) अज्ञान असुर से लड़ने के लिए - प्रचारात्मक मोर्चा
(२) अभाव के दैत्य से जूझने के लिए - रचनात्मक मोर्चा
(३) अनाचार/अनीति से लड़ने के लिए - संघर्षात्मक मोर्चा

इन तीनों अभियानों का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार हैः- 
 
(१) प्रचारात्मक मोर्चा - प्रचारात्मक क्रान्ति का उद्देश्य जनमानस का परिष्कार है । पिछले दो हजार वर्ष के अज्ञानान्धकार के युग ने हमारे चिंतन की धारा को बेतरह विकृत किया है । व्यक्ति की दृष्टि, आस्था और आकांक्षाओं का स्तर निकृष्ट हो जाने से उसका चिंतन और कर्तृत्व विकृत हुआ है । दुर्भावनाएँ और दुष्प्रवृत्तियाँ उत्पन्न हुई हैं । फलस्वरूप हर क्षेत्र में अवांछनीयता उमड़ पड़ी है । अतः इस समय के महाभारत का धर्मक्षेत्र कुरु क्षेत्र जनमानस ही है, जहाँ अगणित दोष-र्दुगुण, अनाचार, कुविचार, सौ असुरताओं का बोलबाला है । मानवता की, नैतिकता की, दूरदर्शिता की, धर्मनिष्ठा की, पुरुषार्थ की पाँचों पाण्डवों की एक ही पतनी द्रोपदी रूपी देव संस्कृति आज भरी सभा में नंगी की जा रही है । सुशासन उठ गया, कहीं रामराज्य, धर्मराज्य दिखाई नहीं पड़ता, सर्वत्र दुष्प्रवृत्तियों का दुःशासन अपना आधिपत्य जमाए बैठा है । अतः जनमानस के मनः क्षेत्र में लड़ा जाने वाला यह महा अभियान शस्त्रों से नहीं, भावनाओं से लड़े जाने वाले समूल महाभारत की सूक्ष्म पुनरावृत्ति ही है । इस मनः क्षेत्र को फिर से जोतने, इसके झाड़-झंकाड़ उखाड़ने , अवांछनीय पूर्वाग्रहों को विदाई देने से ही यह भूमि इस योग्य होगी कि उस पर प्रगतिशीलता व विवेकशीलता के बीज बोए जा सकें तथा सुधार व विकास के उपाय कारगर हो सकें । युग निर्माण योजना का यह प्रथम चरण ही ''ज्ञानयज्ञ'', विचार क्रान्ति अभियान है । ज्ञानयज्ञ के आलोक से ही तो वह समझ सकेगा कि उसका अत्यधिक हित और परम कल्याण किस दिशा में सोचने और चलने से सम्भव हो सकेगा? लाभ हानि में 1या अंतर है? मित्र और शत्रु कौन है? उचित और अनुचित किसे कहते हैं? तनिक-सी क्रूरता के पीछे कालकूट विष तो छिपा नहीं बैठा है? आदि प्रश्नों का उत्तार देने लायक जब मानव मस्तिष्क हो जाए, तभी तो उसे कुछ करने और कराने की बात कही-बताई जा सकती है ।
इसी अभियान को बौद्धिक क्रान्ति का नाम भी दिया गया है । बुद्धि भ्रम ने हमें संकीर्ण-स्वार्थ की पूर्ति में, सुख-सुविधा खोजने का अभ्यस्त कर दिया है । उच्छृङ्खलता, असंयम, अहंता का प्रदर्शन, सम्पदाओं का संचय, विवेक का विसर्जन, यही सब कारण है जिसमें उलझकर मनुष्य ने अपना स्वरूप विकृत कर दिया और असुरता को अपना बैठा । कुत्साएँ और कुण्ठाएँ उसे साक्षात् नारकीय स्थिति में डाले हुए हैं । युग निर्माण योजना का प्रथम प्रयास चिन्तन की अवांछनीयता का निवारण है अर्थात् विचारों की दिशा स्वार्थ भरी संकीर्णता से ऊँची उठाने का प्रयास । 
(२) रचनात्मक मोर्चा - योजना का दूसरा चरण है, रचनात्मक प्रवृत्तियों का अभिवर्धन । जो उचित है उसको स्वीकार करना ही काफी नहीं, उसका समर्थन और सहयोग भी किया जाना चाहिए और उसे कार्यान्वित करने के लिए अपनी देववृत्ति को व्यवहार क्षेत्र में उतरने का, अभ्यस्त होने का अवसर भी मिलना चाहिए । यह कार्य रचनात्मक कार्यों के द्वारा सेवा साधना के माध्यम से ही हो सकते हैं । आदर्शवादी मान्यताएँ जब व्यवहार क्षेत्र में उतारी जाती हैं, तभी वे अभ्यास में आती हैं-स्वभाव का अंग बनती हैं, और संस्कार के रूप में आस्था बनकर अन्तःकरण में प्रतिष्ठापित होती है । व्यक्तिगत जीवन की सहृदयता एवं सज्जनता को लोकसेवा की शिला पर घिसकर ही तीव्र किया जा सकता है ।
पिछले दिनों जिस प्रकार दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों को मन में जमे रहने और उन्हें कार्यान्वित होने का अवसर मिलते रहने से वे स्वभाव का अंग बनी हैं; उसी प्रकार अब सद्भावनाओं और सद्प्रवृत्तियों को अभ्यास में उतरने, कार्यान्वित करने का प्रत्यक्ष अवसर मिलेगा, तभी वे विकसित, परिष्कृत व परिप1व होंगी । नैतिक और सामाजिक कर्त्ताव्यों की गहरी अनुभूति तभी हो सकती है जब आत्म निर्माण और लोकनिर्माण की दिशा में कुछ व्यावहारिक कदम उठाए जाएँ, कुछ कष्ट सहा जाए, कुछ त्याग किया जाए । समाज को बिगाड़ने वाली शक्तियाँ बहुत दिनों से काम करती रही हैं । अब निर्माण का व्यापक आंदोलन शुरू होना चाहिए । जो जिस स्थिति में हैं-जैसी उसकी योग्यता व रूचि है, उसी के अनुसार उसे अपने समीपवर्ती क्षेत्र में कुछ ऐसा परमार्थपरक काम प्रारम्भ कर देना चाहिए; जिससे राष्ट्र के भौतिक विकास में सहायता मिले । पारिश्रमिक लेकर तो किसी से कुछ भी कराया जा सकता है । सेवावृत्तिा का विकास तब होता है जब इस प्रकार के कार्य निःस्वार्थ भावना से किए जाएँ । रचनात्मक कार्य पद्धति इसी का नाम है । जिसके अनुसार विभिन्न स्तर के व्यक्तियों को सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्द्धन के लिए समय, श्रम, बुद्धि, प्रतिभा या साधनों का अनुदान देने के लिए बाध्य होना पड़ता है । सृजन की दिशा में किए गए एक-एक बून्द प्रयतनों का सम्मिलित स्वरूप भरे हुए मंगल कलश के रूप में सामने आ सकता है । सब लोग थोड़ा-थोड़ा बनाने की सोचें और उस दिशा में कुछ न कुछ करना प्रारम्भ करें, तो निःसंदेह उस विशाल जन सहयोग का परिणाम आशाजनक ही नहीं, आश्चर्यजनक बनकर सामने आ सकता है ।
हमारे धर्म प्रचारक सर्वप्रथम विचारों की दिशा स्वार्थभरी संकीर्णता से ऊँची उठाने का प्रयत्न करेंगे । इसके उपरान्त उस परिष्कृत मनोभूमि को तत्काल सृजनात्मक प्रयोजनों में जुटा देंगे । पेट और प्रजनन से भी आगे कुछ उपयोगी बातें हो सकती हैं, इसकी ओर सर्वसाधारण का ध्यान आकर्षित किया जाए और उन्हें मिल-जुलकर पूरा करने का अभ्यास लोकप्रवृत्ति में सम्मिलित किया जाए, इन्ही प्रयतनों का नाम रचनात्मक क्रियाकलाप है । आरोग्य संवर्धन के लिए व्यायामशालाएँ, सद्ज्ञान सम्पादन के लिए पुस्तकालय, वाचनालय, निरक्षरता निवारण के लिए प्रौढ़ पाठशालाएँ, व्यस्त लोगों के शिक्षा विकास के लिए रात्रि पाठशालाएँ, ठाली समय में उपार्जन के लिए गृह उद्योग शालाएँ, उत्पादक प्रवृत्ति जगाने के लिए शाक वाटिकाएँ, हरीतिमा संवर्धन के लिए पुष्प गुल्मों का संवर्धन, शाकों की कृषि और वृक्षारोपण, गौपालन जैसी अनेकों गतिविधियाँ मिल-जुलकर जगह-जगह चलाई जा सकती हैं और उससे प्रगति पथ पर बढ़ने की दिशा में बहुत सहायता मिल सकती है । सहकारिता के आधार पर कितने ही उत्पादक व सुविधा संवर्धक उद्योग व्यवसाय खड़े किये जा सकते हैं । मनुष्यों और पशुओं के मलमूत्र का सदुपयोग करने की ओर ध्यान आकर्षित हो तो हमारे देहातों की जहाँ स्वच्छता और सुविधा बढ़े, वहाँ कृषि उत्पादन में भी आशाजनक अभिवृद्धि सामने आए ।
श्रमदान के लिए हर वयस्क व्यक्ति एक घण्टा समय निकाले और लोकोपयोगी निर्माण कार्य में उसे लगाए तो सड़क, बांध, तालाब, कुँए, पाठशाला, पुस्तकालय, पंचायतघर, मंदिर, बगीचे, पार्क, क्रीड़ा प्रांगण आदि अनेक उपयोगी निर्माण स्वल्प लागत में बन सकें और जो टूटे-फूटे हों, उनका जीर्णोद्धार हो सके । सार्वजनिक स्थानों की गंदगी इसी श्रमदान से हटाई जा सकती है । एक-एक मुट्ठी अनाज या २५-५० पैसा प्रतिदिन रचनात्मक कार्यों के लिए निकालते रहने से, इस स्वल्प बचत से, अनेकों स्थानीय रचनात्मक गतिविधियों का संचालन हो सकता है । इस प्रकार जनमानस का रुझान अपने बलबूते अपनी आवश्यकताओं का स्वयं हल निकालने और उसके साधन स्वयं जुटाने के लिए मोड़ा जा सके, तो आलस्य और व्यसनों में नष्ट होने वाला समय तथा धन अपनी धारा बदल सकता है और समृद्धि के इतने अधिक साधन सामने लाकर खड़े कर सकता है, जिसके सामने अर्थशास्त्रियों और राजनेताओं की संवर्धन योजनाएँ बाल-विनोद जैसी मालूम पड़ने लगें ।
स्वास्थ्य संवर्धन के लिए आहार-विहार का नए सिरे से निर्माण करना होगा । प्रकृति के विपरीत चलने का दुराग्रह छोड़कर सौम्यता, सादगी, स्वाभाविकता, सात्विकता को अपनाना होगा । स्थिर रचनात्मक कार्यक्रमों में जीवनोपयोगी समग्र शिक्षा पद्धति का निर्माण और विकास भी सम्िमलित है ।
रचनात्मक प्रवृत्तिायों को कार्यान्वित करने से न केवल राष्ट्र निर्माण की संभावनाएँ मूर्तिमान होती हैं वरन् व्यक्ति की मानवोचित सद्भावनाओं का भी विकास होता है । व्यक्ति और समाज की प्रगति का यही तरीका है । 
(३) संघर्षात्मक मोर्चा- रचनात्मक कार्यों से आगे का चरण है - संघर्ष । सामाजिक क्रान्ति को संघर्षात्मक प्रक्रिया द्वारा ही पूरा किया जा सकेगा । अवांछनीयता की दाढ़ में जब खून लग जाता है तब वह अपने निहित स्वार्थों को सहज ही छोड़ने के लिए तैयार नहीं होती । पशु प्रलोभन से आकर्षित होता है और दण्ड से डरता है । समझाने से हृदय बदलने के लिए जिसे तैयार नहीं किया जा सकता, ऐसी पशुता भी कम नहीं है । उसे दण्ड और विरोध से ही नियंत्रित रखा जा सकता है और निरस्त किया जा सकता है ।
सामाजिक दोषों में बेईमानी, शेखीखोरी, रिश्वत, मिलावट, चोरी, जुआ, शोषण, उत्पीड़न, हराम की कमाई, व्यभिचार, उच्छृङ्खलता, छल जैसे दुष्कर्मों की गणना की जाती है, कुरीतियाँ, अंधविश्वास, वर्ग-विद्वेष, असमानताजन्य परम्पराएँ ऐसी हैं, जिन्हें सामाजिक ही नहीं, बौद्धिक विकृति भी कह सकते हैं । उनके उन्मूलन के लिए बहुत कुछ किया जाना है । स्वार्थी राजनेता, गुण्डे, अपराधी, असामाजिक तत्व, रिश्वतखोर, अफसर, धर्म व्यवसायी, छली, प्रपंची, जमाखोर, मुनाफाखोर व्यवसायी, कुरीतियों के पोषक, कला और साहित्य में अनाचार उभारने वाले कलाकार, मुफ्तखोर, तस्करी आदि कुकर्म का पोषक वर्ग इन दिनों बढ़ता ही चला जा रहा है । इसका प्रतिरोध न किया जा सका, तो उनकी दुष्टता अनुनय-विनय मात्र से रूकने वाली नहीं है । जब तक इन वर्गों को यह विदित न हो जाए कि इन दुष्प्रवृत्तियों को अपनाए रहने से लाभ कम, हानि अधिक है, तब तक वह सहज मानने वाले नहीं है ।
इन दिनों कुकर्मी लोगों को व्यवहार कुशल, भाग्यवान् माना जाता है और जिन्हें उनका उत्पीड़न सहना पड़ा, उनके अतिरिक्त अन्य लोग न उनकी निन्दा करते हैं, न विरोध । कई बार तो उनकी सफलताओं और उपलब्धियों की प्रशंसा तक की जाती है, जो स्पष्टतः अनीति से उपार्जित की गई थी । दुष्प्रवृत्तियों को रोकने का कारगर उपाय यह है कि उनके विरूद्ध घोर घृणा उभरे । कोई उनकी प्रशंसा न करे, न सहयोग दे । उनसे साहसपूर्वक भिड़ा भी जाए और विरोध करने में भी पीछे न रहा जाए । कानून से, व्यक्तिगत अथवा सामूहिक प्रतिरोध से अवांछनीय तत्वों का रास्ता बंद किया जाए । भले ही इससे अपने को झंझट या कष्ट सहना पड़े ।
समाज में फैली दुष्प्रवृत्तियों से असहयोग, विरोध, संघर्ष के तीनों ही उपाय  काम में लाने पड़ेंगे और समयानुसार अहिंसा से लेकर हिंसा तक के आधार ग्रहण करने पड़ेंगे । अभी प्रचार, प्रदर्शन, असहयोग, विरोध जैसे माध्यम ही संघर्ष प्रयोजन के लिए अपनाए गए हैं, पर अगले दिनों धरना, सत्याग्रह, घिराव जैसे कठोर कदम भी उठाए जाएँगे । एक दिन यह भी आएगा जब अवांछनीयता के विरूद्ध युग निर्माण योजना तीव्र संघर्ष खड़ा करेगी और करो या मरो की उग्रता लेकर मैदान में आएगी । अनीतिवादियों को अनाचार बन्द करने के लिए बाध्य करेगी । जैसे-जैसे लोग अनौचित्य की हानियों को समझते जाएँगे और उसे निरस्त करने की आवश्यकता अनुभव करते जाएँगे, वैसे-वैसे ही इस प्रकार के संघर्ष की पृष्ठभूमि बनती जाएगी । उपयुक्त अवसर पर एक ऐसा धर्मयुद्ध खड़ा किया जाएगा जिसके आगे असुरता का खड़े रह सकना सम्भव ही न हो सके ।
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संस्थापक....
इतिहास में कभी-कभी ऐसा होता है कि अवतारी सत्ता एक साथ बहुआयामी रूपों में प्रकट होती है एवं करोड़ों ही नहीं, पूरी वसुधा के उद्धार-चेतनात्मक धरातल पर सबके मनों का नये सिरे से निर्माण करने आती है । परम पूज्य गुरुदेव पं.श्रीराम शर्मा आचार्य को एक ऐसी ही सत्ता के रूप में देखा जा सकता है, जो युगों-युगों में गुरु एवं अवतारी सत्ता दोनों ही रूपों में हम सबके बीच प्रकट हुई । अस्सी वर्ष का जीवन जीकर एक विराट् ज्योति प्रज्ज्वलित कर उस सूक्ष्म ऋषि चेतना के साथ एकाकार हो गयी, जो आज युग परिवर्तन को सन्निकट लाने को प्रतिबद्ध है । परम वंदनीया माताजी शक्ति का रूप थीं, जो कभी महाकाली, कभी माँ जानकी, कभी माँ शारदा एवं कभी माँ भगवती के रूप में शिव की कल्याणकारी सत्ता का साथ देने आती रही हैं । उनने भी सूक्ष्म में विलीन हो स्वयं को अपने आराध्य के साथ एकाकार कर ज्योतिपुरुष का एक अंग स्व्यं को बना लिया । आज दोनों सशरीर हमारे बीच नहीं हैं, किन्तु, नूतन सृष्टि कैसे ढाली गयी, कैसे मानव गढ़ने का साँचा बनाया गया है, इसे शान्तिकुंज, ब्रह्मवर्चस, गायत्री तपोभूमि, अखण्ड ज्योति संस्थान एवं युगतीर्थ आँवलखेड़ा जैसी स्थापनाओं तथा संकल्पित सृजन सेनानीगणों के वीरभद्रों की करोड़ों से अधिक की संख्या के रूप में देखा जा सकता है ।

  • परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य

परम पूज्य गुरुदेव का वास्तविक मूल्यांकन तो कुछ वर्षों बाद इतिहासविद, मिथक लिखने वाले करेंगे किन्तु यदि उनको आज भी साक्षात् कोई देखना या उनसे साक्षात्कार करना चाहता हो तो उन्हें उनके द्वारा अपने हाथ से लिखे गये उस विराट् परिमाण में साहित्य के रूप में-युग संजीवनी के रूप में देखा जा सकता है, जो वे अपने वजन से अधिक भार के बराबर लिख गये । इस साहित्य में संवेदना का स्पर्श इस बारीकी से हुआ है कि लगता है लेखनी को उसी की स्याही में डुबाकर लिखा गया हो । हर शब्द ऐसा जो हृदय को छूता, मनो व विचारों को बदलता चला जाता है । लाखों-करोड़ों के मनों के अंतःस्थल को छूकर उसने उनका कायाकल्प कर दिया । रूसो के प्रजातंत्र की, कार्लमर्क्स के साम्यवाद की क्रान्ति भी इसके समक्ष बौनी पड़ी जाती है । उनके मात्र इस युग वाले स्वरूप को लिखने तक में लगता है कि एक विश्वकोश तैयार हो सकता है, फिर उस बहुआयामी रूप को जिसमें वे संगठन कर्ता, साधक, करोड़ों के अभिभावक, गायत्री महाविद्या के उद्धारक, संस्कार परम्परा का पुनर्जीवन करने वाले, ममत्व लुटाने वाले एक पिता, नारी जाति के प्रति अनन्य करुणा बिखेरकर उनके ही उद्धार के लिए धरातल पर चलने वाला नारी जागरण अभियान चलाते देखे जाते हैं, अपनी वाणी के उद्बोधन से एक विराट् गायत्री परिवार एकाकी अपने बलबूते खड़े करते दिखाई देते हैं तो समझ में नहीं आता, क्या-क्या लिखा जाये, कैसे छन्दबद्ध किया जाय, उस महापुरुष के जीवन चरित को ।
आश्विन कृष्ण त्रयोदशी विक्रमी संवत् १९६७ (२० सितम्बर, १९११) को स्थूल शरीर से आँवलखेड़ा ग्राम जनपद आगरा, जो लतेसर मार्ग पर आगरा से पन्द्रह मील की दूरी पर स्थित है, में जन्मे श्रीराम शर्मा जी का बाल्यकाल-कैशोर्य काल ग्रामीण परिसर में ही बीता । वे जन्मे तो थे एक जमींदार घराने में, जहाँ उनके पिता श्री पं.रूपकिशोर जी शर्मा आस-पास के, दूर-दराज के राजघरानों के राजपुरोहित, उद्भट विद्वान, भगवत् कथाकार थे, किन्तु उनका अंतःकरण मानव मात्र की पीड़ा से सतत् विचलित रहता था । साधना के प्रति उनका झुकाव बचपन में ही दिखाई देने लगा, जब वे अपने सहपाठियों को, छोटे बच्चों को अमराइयों में बिठाकर स्कूली शिक्षा के साथ-साथ सुसंस्कारिता अपनाने वाली आत्मविद्या का शिक्षण दिया करते थे । छटपटाहट के कारण हिमालय की ओर भाग निकलने व पकड़े जाने पर उनने संबंधियों को बताया कि हिमालय ही उनका घर है एवं वहीं वे जा रहे थे । किसे मालुम था कि हिमालय की ऋषि चेतनाओं का समुच्चय बनकर आयी यह सत्ता वस्तुतः अगले दिनों अपना घर वहीं बनाएगी । जाति-पाँति का कोई भेद नहीं । जातिगत मूढ़ता भरी मान्यता से ग्रसित तत्कालीन भारत के ग्रामीण परिसर में अछूत वृद्ध महिला की जिसे कुष्ठ रोग हो गया था, उसी के टोले में जाकर सेवा कर उनने घरवालों का विरोध तो मोल ले लिया पर अपना व्रत नहीं छोड़ । उन्हें किशोरावस्था में ही समाज सुधार की रचनात्मक प्रवृत्तियाँ उनने चलाना आरंभ कर दी थीं । औपचारिक शिक्षा स्वल्प ही पायी थी । किन्तु, उन्हें इसके बाद आवश्यकता भी नहीं थी क्योंकि, जो जन्मजात प्रतिभा सम्पन्न हो वह औपचारिक पाठ्यक्रम तक सीमित कैसे रह सकता है । हाट-बाजारों में जाकर स्वास्थ्य-शिक्षा प्रधान परिपत्र बाँटना, पशुधन को कैसे सुरक्षित रखें तथा स्वावलम्बी कैसे बनें, इसके छोटे-छोटे पैम्पलेट्स लिखने, हाथ की प्रेस से छपवाने के लिए उन्हें किसी शिक्षा कीआवश्यकता नहीं थी । वे चाहते थे, जनमानस आत्मावलम्बी बने, राष्ट्र के प्रति स्वाभिमान उसका जागे, इसलिए गाँव में जन्मे । इस लाल ने नारी शक्ति व बेरोजगार युवाओं के लिए गाँव में ही एक बुनताघर स्थापित किया व उसके द्वारा हाथ से कैसे कपड़ा बुना जाय, अपने पैरों पर कैसे खड़ा हुआ जाय-यह सिखाया ।
पंद्रह वर्ष की आयु में वसंत पंचमी की वेला में सन् १९२६ में उनके घर की पूजास्थली में, जो उनकी नियमित उपासना का तब से आधार थी, जबसे महामना पं.मदनमोहन मालवीय जी ने उन्हें काशी में गायत्री मंत्र की दीक्षा दी थी, उनकी गुरुसत्ता का आगमन हुआ । अदृश्य छायाधारी सूक्ष्म रूप में । उनने प्रज्ज्वलित दीपक की लौ में से स्वयं को प्रकट कर उन्हें उनके द्वारा विगत कई जन्मों में सम्पन्न क्रिया-कलापों का दिग्दर्शन कराया तथा उन्हें बताया कि वे दुर्गम हिमालय से आये हैं एवं उनसे अनेकानेक ऐसे क्रियाकलाप कराना चाहते हैं, जो अवतारी स्तर की ऋषिसत्ताएँ उनसे अपेक्षा रखती हैं । चार बार कुछ दिन से लेकर एक साल तक की अवधि तक हिमालय आकर रहने, कठोर तप करने का भी उनने संदेश दिया एवं उन्हे तीन संदेश दिए -
१. गायत्री महाशक्ति के चौबीस-चौबीस लक्ष्य के चौबीस महापुरश्चरण जिन्हें आहार के कठोर तप के साथ पूरा करना था ।
२. अखण्ड घृतदीप की स्थापना एवं जन-जन तक इसके प्रकाश को फैलाने के लिए समय अपने ज्ञानयज्ञ अभियान चलाना, जो बाद में अखण्ड ज्योति पत्रिका के १९३८ में प्रथम प्रकाशन से लेकर विचार-क्रान्ति अभियान के विश्वव्यापी होने के रूप में प्रकट हुआ ।
३. चौबीस महापुरश्चरणों के दौरान युगधर्म का निर्वाह करते हुए राष्ट्र के निमित्त भी स्वयं को खपाना, हिमालय यात्रा भी करना तथा उनके संपर्क से आगे का मार्गदर्शन लेना ।
यह कहा जा सकता है कि युग निर्माण मिशन, गायत्री परिवार, प्रज्ञा अभियान, पूज्य गुरुदेव जो सभी एक-दूसरे के पर्याय हैं, जीवन यात्रा का यह एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था, जिसमें भावी रीति-नीति का निर्धारण कर दिया । पूज्य गुरुदेव अपनी पुस्तक हमारी वसीयत और विरासत में लिखते हैं कि प्रथम मिलन के दिन समर्पण सम्पन्न हुआ । दो बातें गुरुसत्ता द्वारा विशेष रूप से कही गई-संसारी लोग क्या करते हैं और क्या कहते हैं, उसकी ओर से मुँह मोड़कर निर्धारित लक्ष्य की ओर एकाकी साहस के बलबूते चलते रहना एवं दूसरा यह कि अपने को अधिक पवित्र और प्रखर बनाने की तपश्चर्या में जुट जाना- जौ की रोटी व छाछ पर निर्वाह कर आत्मानुशासन सीखना । इसी से वह सार्मथ्य विकसित होगी जो विशुद्धतः परमार्थ प्रयोजनों में नियोजित होगी । वसंत पर्व का यह दिन गुरु अनुशासन का अवधारण ही हमारे लिए नया जन्म बन गया । सद्गुरु की प्राप्ति हमारे जीवन का अनन्य एवं परम सौभाग्य रहा ।
राष्ट्र के परावलम्बी होने की पीड़ा भी उन्हे उतनी ही सताती थी जितनी कि गुरुसत्ता के आनेदशानुसार तपकर सिद्धियों के उपार्जन की ललक उनके मन में थी । उनके इस असमंजस को गुरुसत्ता ने ताड़कर परावाणी से उनका मार्गदर्शन किया कि युगधर्म की महत्ता व समय की पुकार देख-सुनकर तुम्हें अन्य आवश्यक कार्यों को छोड़कर अग्निकाण्ड में पानी लेकर दौड़ पड़ने की तरह आवश्यक कार्य भी करने पड़ सकते हैं । इसमें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के नाते संघर्ष करने का भी संकेत था । १९२७ से १९३३ तक का समय उनका एक सक्रिय स्वयं सेवक- स्वतंत्रता सेनानी के रूप में बीता, जिसमें घरवालों के विरोध के बावजूद पैदल लम्बा रास्ता पार कर वे आगरा के उस शिविर में पहुँचे, जहाँ शिक्षण दिया जा रहा था, अनेकानेक मित्रों-सखाओं-मार्गदर्शकों के साथ भूमिगत हो कार्य करते रहे तथा समय आने पर जेल भी गये । छह-छह माह की उन्हें कई बार जेल हुई । जेल में भी जेल के निरक्षर साथियों को शिक्षण देकर व स्वयं अँग्रेजी सीखकर लौटै । आसनसोल जेल में वे पं.जवाहरलाल नेहरू की माता श्रीमती स्वरूपरानी नेहरू, श्री रफी अहमद किदवई, महामना मदनमोहन मालवीय जी, देवदास गाँधी जैसी हस्तियों के साथ रहे व वहाँ से एक मूलमंत्र सीखा जो मालवीय जी ने दिया था कि जन-जन की साझेदारी बढ़ाने के लिए हर व्यक्ति के अंशदान से, मुट्ठी फण्ड से रचनात्मक प्रवृत्तियाँ चलाना । यही मंत्र आगे चलकर एक घंटा समयदान, बीस पैसा नित्य या एक दिन की आय एक माह में तथा एक मुट्ठी अन्न रोज डालने के माध्यम से धर्म घट की स्थापना का स्वरूप लेकर लाखों-करोड़ों की भागीदारी वाला गायत्री परिवार बनता चला गया, जिसका आधार था - प्रत्येक व्यक्ति की यज्ञीय भावना का उसमें समावेश ।
स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान कुछ उग्र दौर भी आये, जिनमें शहीद भगतसिंह को फाँसी दिये जाने पर फैले जनआक्रोश के समय श्री अरविन्द के किशोर काल की क्रान्तिकारी स्थिति की तरह उनने भी वे कार्य किये, जिनसे आक्रान्ता शासकों प्रति असहयोग जाहिर होता था । नमक आन्दोलन के दौरान वे आततायी शासकों के समक्ष झुके नहीं, वे मारते रहे परन्तु, समाधि स्थिति को प्राप्त राष्ट्र देवता के पुजारी को बेहोश होना स्वीकृत था पर आन्दोलन के दौरान उनने झण्डा छोड़ा नहीं जबकि, फिरंगी उन्हें पीटते रहे, झण्डा छीनने का प्रयास करते रहे । उन्होंने मुँह से झण्डा पकड़ लिया, गिर पड़े, बेहोश हो गये पर झण्डे का टुकड़ा चिकित्सकों द्वारा दाँतों में भींचे गये टुकड़े के रूप में जब निकाला गया तक सब उनकी सहनशक्ति देखकर आश्चर्यचकित रह गये । उन्हें तब से ही आजादी के मतवाले उन्मत्त श्रीराम मत्त नाम मिला । अभी भी भी आगरा में उनके साथ रहे या उनसे कुछ सीख लिए अगणित व्यक्ति उन्हें मत्त जी नाम से ही जानते हैं । लगानबन्दी के आकड़े एकत्र करने के लिए उन्होंने पूरे आगरा जिले का दौरा किया व उनके द्वारा प्रस्तुत वे आँकड़े तत्कालीन संयुक्त प्रान्त के मुख्यमंत्री श्री गोविन्द वल्लभ पंत द्वार गाँधी जी के समक्ष पेश किये गये । बापू ने अपनी प्रशस्ति के साथ वे प्रामाणिक आँकड़े ब्रिटिश पार्लियामेन्ट भेजे, इसी आधार पर पूरे संयुक्त प्रान्त के लगान माफी के आदेश प्रसारित हुए । कभी जिनने अपनी इस लड़ाई के बदले कुछ न चाहा, उन्हें सरकार ने अपने प्रतिनिधि के साथ सारी सुविधाएँ व पेंशन दिया, जिसे उनने प्रधानमंत्री राहत फण्ड के नाम समपत कर दी । वैरागी जीवन का, सच्चे राष्ट्र संत होने का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है?
१९३५ के बाद उनके जीवन का नया दौर शुरू हुआ, जब गुरुसत्ता की प्रेरणा से वे श्री अरविन्द से मिलने पाण्डिचेरी, गुरुदेव, ऋषिवर रवीन्द्रनाथ टैगौर से मिलने शांति निकेतन तथा बापू से मिलने साबरमती आश्रम, अहमदाबाद गये । सांस्कृतिक, आध्यात्मिक मंर्चों पर राष्ट्र को कैसे परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त किया जाय, यह र्निदेश लेकर अपना अनुष्ठान यथावत् चलाते हुए उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया, जब आगरा में सैनिक समाचार पत्र के कार्यवाहक संपादक के रूप में श्रीकृष्णदत्त पालीवाल जी ने उन्हें अपना सहायक बनाया। बाबू गुलाब राय व पालीवाल जी से सीख लेते हुए सतत स्वाध्यायरत रहकर उनने अखण्ड ज्योति नामक पत्रिका का पहला अंक १९३८ की वसंत पंचमी पर प्रकाशित किया । प्रयास पहला था, जानकारियाँ कम थीं अतः पुनः सारी तैयारी के साथ विधिवत् १९४० की जनवरी से उनने परिजनों के नाम पाती के साथ अपने हाथ से बने कागज पर पैर से चलने वाली मशीन से छापकर अखण्ड ज्योति पत्रिका का शुभारंभ किया, जो पहले तो दो सौ पचास पत्रिका के रूप में निकली, किन्तु क्रमशः उनके अध्यवसाय, घर-घर पहुँचाने, मित्रों तक पहुँचाने वाले उनके हृदयस्पर्शी पत्रों द्वारा बढ़ती-बढ़ती नवयुग के मत्स्यावतार की तरह आज दस लाख से भी अधिक संख्या में विभिन्न भाषाओं में छपती व करोड़ से अधिक व्यक्तियों द्वारा पढ़ी जाती है ।

             माता भगवती देवी शर्मा