गायत्री महाविद्या

वेदमाता, देवमाता, विश्वमाता

परम पूज्य गुरुदेव को इस युग का विश्वामित्र कहा जाता है क्योंकि उन्होंने विलुप्त हो रही गायत्री महाविद्या पुनर्जीवन कर उसे एक वर्ग विशेष तक सीमित न रहने देकर विश्व व्यापी बना दिया । गायत्री साधना सदबुद्धि की आराधना-उपासना है । गायत्री को वेदों की माता-वेदमाता कहा जाता है । वेद शब्द का अर्थ है ''ज्ञान'' । यह ज्ञानकल्याण (ऋक्), पौरुष (यजु), क्रीड़ा (साम) एवं अर्थ (अथर्व)- इन चार उपक्रमों के माध्यम से सृष्टि के हर जीवधारी के चेतनात्मक क्रिया कलापों का मूलाधार हैं उस चैतन्य शक्ति की जिसे आद्य शक्ति कहा जाता है, यह स्फुरणा है जो सृष्टिके आरंभ में उदभुत हुई व इस सृष्टिकी उत्पत्ति इस प्रकार से ब्रह्माजी के माध्यम से चार वेदों के माध्यम से हुई । गायत्री वही आद्य शक्ति है, इसलिए वेदमाता कही जाती है । गायत्री मंत्र को समस्त वेद शास्त्रों का निचोड़' कहा गया है । शास्त्रों में ऋषिगणों ने इस मंत्र की महिमा का गायन खुलकर किया है तथा श्री मदभगवद्गीता में तो स्पष्टरूप से योगिराज श्रीकाष्ण के मुख से कहलवाया गया है कि गायत्री छन्दों में सर्वश्रेष्ट होने के रूप में परमात्मा की सत्ता उनमें विराजती है । ''गायत्री छन्द सामहम्'' । गायत्री मंत्र एक छोटा सा सारगर्भित किन्तु समग्र धर्म शास्त्र है जिसके चौबीस अक्षरों में से प्रत्येक अक्षर में वेदों रूपी महा वट-वृक्ष के मूल तत्त्व ज्ञानबीज के रूप में विद्यमान हैं । इन्हीं के पल्लवित होने पर वैदिक वाङ्मय का अपौरुषेय कहलाने वाला चारों वेदों का विस्तार ऋषियों की ज्ञान सम्पदा के रूप में हमारे समक्ष आता है जो सृष्टिकी उत्पत्ति का आधार ही नहीं बना, देव संस्काति का उद्गम भी कहलाया । जिससे प्रमाणित होता है कि इस एक मंत्र के माध्यम से ही इस संसार में सब कुछ पाया जा सकता है । कैसे गायत्री देवताओं, अवतारी सत्ताओं व ऋषिगणों की उपास्य रही है, मानव मात्र के लिए वह विपत्ति निवारणकरने वाली एक संजीवनी किस रूप में है । गायत्री अमृत है, पारस है, कल्पवृक्ष है, कामधेनु है, किस रूप में व किस तरह वह सुपात्र को ये अनुदान प्रदान करती है, इसकी विवेचना जो गायत्री महा विज्ञान, युग शक्ति गायत्री एवं अखण्ड ज्योति में समय-समय पर प्रकाशित होती रहती है । गायत्री महामंत्र का हर अक्षर शक्ति का स्रोत है, अपरिमित शक्ति का भण्डागार है तथा सही ढंग से की गयी गायत्री उपासना जीवन में चमत्कारिक परिणाम उत्पन्न करती है, यह परमपूज्य गुरुदेव के जीवन का अनुभव है जो इन पंक्तियों को पढ़कर आत्मसात किया व स्वयं जीवन में कैसे उतारा जाय, यह शिक्षण लिया जा सकता है । गायत्री महाविद्या को अथर्ववेद के अनुसार प्रधानतया ब्रह्मवर्चस् अर्थात् आत्मबल प्रदान करने वाली प्रधान सत्ता बताते हुए परमपूज्य गुरुदेव ने इसे प्राण ऊर्जा की अधिष्ठात्री शक्ति प्रमाणित किया है । आज का सबसे बड़ा संकट है आत्मबल की कमी, मानव की अशक्ति । आस्था संकट से पीड़ित मानव जाति को जिस संजीवनी-जीवन मूरि की आवश्यकता है, वह गायत्री महामंत्र के रूप में विद्यमान है । यदि व्यक्ति इस मंत्र की उपासना के माध्यम से अपना ब्रह्मवर्चस् जगा ले, अपने प्रसुप्त बल को पुनः प्राप्त करले तो वह समस्त प्रतिकूलताओं से मोर्चा ले सकता है । श्रद्धा, निष्ठा, प्रज्ञारूपी त्रिपदा गायत्री की उपासना साधक को ऐसा ही आत्मबल प्रदान करती है, जिससे वह दुर्भावनाओं, दुष्यिन्तक दुष्प्रवृत्तियों से जूझते हुए जीवन समर जीतता हुआ आगे बढ़ता रहा सकता है । अपना आध्यात्मिक स्वास्थ्य बनाए रख अपना आभा मण्डल सतत बढ़ाए रखता चल सकता है । अपनी बुद्धि को सन्मार्ग-गामी बनाते हुए स्रष्ट के इस उद्यान को और सुरम्य बना सकता है । परा व अपरा विद्या की जननी गायत्री महामंत्र के जितने भी ज्ञात-अविज्ञात पक्ष हैं, उनको जन-जन के समक्ष प्रस्तुत कर एक प्रकार से समग्र मानव जाति का कायाकल्प करने, नूतन सृष्टि का सृजन करने का पुरुषार्थ इस ज्ञान के माध्यम से सम्पन्न हुआ है । गायत्री उपासना ईश्वर उपासना का एक अत्युत्तम, सरलतम, शीघ्र सफलता देने वाला मार्ग है, यह जानने के बाद फिर कहीं किसी को भटकने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती 'गायत्री वा इद्र सर्वभूत़ं यदिदं किंच' के माध्यम से छान्दोग्योपनिषदकार ने स्पष्ट रूप से कह दिया है कि यह विश्व जो भी कुछ है, गायत्रीमय है!

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२. शक्ति की अधिष्टात्री त्रिपदा गायत्री.....

सार के समस्त दुःखों के तीन प्रधान कारण हैं- (1)अज्ञान, (2) अभाव, (3) अशक्ति । सत्, रज, तम, की त्रिविधि प्रकृति से मनुष्य का निर्माण हुआ है । वस्तुतः सत्ता दो की है । सत् और तम की । रज की उत्पत्ति तो दोनों की सम्मिश्रण से होती है । दुःखों के कारणों में भी प्रधान दो ही हैं- अज्ञान और अशक्ति । अभाव तो उनकी परिणति है । गायत्री की तीन शक्ति धाराएँ हैं- ह्रीं, श्रीं और क्लीं । ह्रीं सद्ज्ञान की, श्रीं वैभव की और क्लीं शक्ति की बल प्रतीक है । सत्-रज, तम से बनी काया को आवश्यकता तीनों ही शक्ति धाराओं की है । इनमें किसी का भी महत्त्व कम नहीं है । तीनों का सन्तुलन आवश्यक है । जीवन निर्वाह के लिए जितना महत्त्व ज्ञान का है उतना ही साधनों एंव शक्ति का एक भी पक्ष छोड़ा नहीं जा सकता । गायत्री महामन्त्र में तीनों शक्ति धाराओं का समान रूप में समावेश है । ह्रीं को सत् या सरस्वती कहते हैं । ज्ञान की अधिष्ठात्री के रूप माँ सरस्वती की अभ्यर्थना, उपासना भारतीय संस्कृति में सदियों से होती चली आ रही है । तत्वेत्ता गायत ऋषि इस तथ्य से अवगत थे कि सद्ज्ञान के बिना मनुष्य का कल्याण सम्भव नहीं । इसलिए उन्होंने गायत्री मंत्र का आश्रय लिया । सद्ज्ञान की ओर ले चलने वाला सर्व समर्थ मंत्र घोषित किया । यह ऋषियों की परम्परा रही है कि ज्ञान एवं शक्ति धाराओं को उत्पन्न करने वाली दैवी शक्तियों को 'माँ' के रूप में विभूषित किया जाता है । तत्वज्ञानियों की श्रंखला में आने वाले प्रत्येक महामानव ने गायत्री के ह्रीं सत् शक्ति की उपासना द्वारा असाधारण समर्थ्य प्राप्त की है । चाहे वह रामकृष्ण परमहंस हो अथवा योगीराज अरविन्द । महर्षि दयानंद हों अथवा महर्षि रमण । विवेकानंद से लेकर स्वामी रामतीर्थ तक सभी के ऊपर माँ सरस्वती की वरदहस्त रहा है । ज्ञान सम्पदा का अनुग्रह, आत्मज्ञान की प्राप्ति गायत्री महाशक्ति द्वारा सम्भव हो सकी है । अन्यान्य सभी प्रकार की सम्पदाओं की अपेक्षा ज्ञान की महत्ता सर्वोपरि है । इसके अभाव में जीवन यों ही अस्त-व्यस्त बना रहता और मूल्यवान मनुष्य जीवन निरर्थक चला जाता है । अपनी गरिमा एवं लक्ष्य का बोध न रहने से ईश्वर प्रदत्त क्षमताओं का सदुपयोग नहीं हो पाता । उपभोग की पशु-प्रवृत्ति के कारण सदा असन्तोष ही बना रहता है । अज्ञान के रहते मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, मोह की संकीर्ण परिधि से बाहर नहीं निकल पाता । अपनी संकीर्ण प्रवृत्तियाँ ही उलटकर हमला करती और मनुष्य को चैन से बैठने नहीं देती हैं । वासना, तृष्णा और अर्हता की पूर्ति के लिए असन्तुष्ट बना वह वस्तुओं के पीछे पागल के समान भागता है । अज्ञान ही समस्त दुःखों की जननी है जिसके रहते मनुष्य सम्पन्नता का लाभ नहीं उठा सकता । सुखी तो दूर रहा, मिली सम्पदा दुःखदायी बोझ के तुल्य सिद्ध होती है । इस सत्य को वर्तमान में सर्वत्र देखा जा सकता है । सम्पन्नता साधनों की दृष्टि से आज का मनुष्य भूतकाल की तुलना में बहुत आगे है । सारा संसार ही सिमट कर एक छोटे घेरे में आ गया है, यह साधनों का ही चमत्कार है । बुद्धि का भी असामान्य विकास हुआ है किंतु अन्तः में निवास करने वाले 'धी' तत्व में भारी कमी आयी है । प्रज्ञा का स्थान बुद्धि की जड़ता ने ले लिया है । फलतः बुद्धि भी जड़वाद की ही पक्षधर बनती चली जा रही है । समर्थन जब जड़ को मिली है तो चेतना की गरिमा की बात क्यों कर समझ में आये । साधनों के संग्रह की आपाधापी में विश्व मानस ने चेतना की महत्ता को लगभग भुला दिया है । लोकमान्य तिलक कहते हैं-'जिस बहुमुखी दासता के बंधनों में मानव जाति जकड़ी हुई है उसका अन्तः राजनैतिक संघर्ष करने मात्र से न हो जायेगा । उसके लिए आत्मा के अन्दर प्रकाश उत्पन्न होना चाहिए जिससे सत् और असत् का विवेक जागे । कुमार्ग को छोड़कर श्रेष्ठ मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिले, गायत्री मंत्र में यही भावना विद्यमान है । इस तथ्य को जानते हुए योगीजन, ब्रह्मवेत्ता, अध्यात्मवादी, तत्वदर्शी, जीवन साधक, दार्शनिक, परमार्थी व्यक्ति प्रकारान्तर से ह्रीं तत्व की-सरस्वती की ही आराधना-उपासना करते रहते हैं । इन सबका विभिन्न माध्यमों से एकमात्र लक्ष्य है- मनुष्य को असत् से सत् की ओर ले चलना । गायत्री उपासना से आत्मिक आवश्यकताओं की ही मात्र पूर्ति नहीं होती । अपितु भौतिक साधनों की भी आपूर्ति होती है । गायत्री की श्रीं शक्ति धारा द्वारा भौतिक साधन सम्वर्धन की सुसम्पदा अर्जन की विवेक बुद्धि प्राप्त होती है । यह स्वाभाविक है कि प्रगति के प्रयास तो भौतिक स्तर पर ही करने पड़ेंगे । पर उन पर विवेक का अंकुश होने से भटकाव की गुंजाइश नहीं रहती । ऐसी योग्यता, प्रतिभा सृजनात्मक दिशा में ही नियोजित होती है । व्यक्ति एवं समाज के सामूहिक उत्थान की ही बात रुचती है । गायत्री की श्रीं लक्ष्मी शक्ति धारा विभूतियों की अधिष्ठात्री है । श्रीं तत्व के उपासक को अपना ही स्वार्थ अभीष्ट नहीं होता वरन् वह सम्पूर्ण समाज की प्रगति की बात सोचता है । सामूहिक विकास में ही उसे अपना सच्चा स्वार्थ दिखता है । उसके सारे प्रयास उसी दिशा में लगे रहते हैं । बुद्धिवादी, धर्म-प्रचारक, सुधारवादी, समाजसेवी श्रीं शक्ति की सुव्यवस्था में लगकर लक्ष्मी के उपार्जन में सफल हो पाते हैं । गायत्री की श्रीं शक्तिधारा में व्यक्ति एवं समाज के भौतिक विकास के सभी समाधान विद्यमान हैं । वैभव की वृद्धि ही नहीं उनका सदुपयोग सम्पूर्ण मानव जाति के लिए किस प्रकार किया जा सकता है, वह विवेक बुद्धि भी गायत्री उपासना से ही मिलती है । यही कारण है कि सच्चा गायत्री उपासक साधन सम्पन्न होते हुए भी निर्लिप्त बना रहता है । अपने लिए कम से कम साधनों का उपयोग करता है । व्यापक स्तर पर विद्यमान अभाव, दरिद्रता के निवारण में ही उसे शाश्वत आनंद की अनुभूति होती है । श्रीं तत्व की अवहेलना करने वाला व्यक्ति संकीर्ण बनता है । व्यक्तिगत उपभोग के लिए ही वह सारे ताने-बाने बुनता है । समाज से उपार्जित सम्पत्ति का वह संग्रह तो करता है, पर उसका उपयोग स्वयं करता है । इसके विपरीत श्रीं तत्व का उपासक लक्ष्मी का सच्चा साधक सम्पत्ति का मोह नहीं रखता । उसे उपभोग में नहीं, सम्पत्ति को सदुपयोग में आनन्द आता है । समाज की उन्नति के लिए वह अपनी सम्पत्ति सहर्ष समर्पित करता है । गायत्र की 'क्लीं' तत्व भौतिक सामर्थ्य का प्रतीक है । उसे ही गायत्री की शक्ति धाराओं में 'काली' के रूप में अलंकृत किया गया है । ज्ञान एवं साधन हो किन्तु शक्ति न हो उनका उपयोग नहीं बन पड़ता । शक्ति रहित व्यक्ति के पास साधन भी अधिक दिन तक टिके नहीं रह सकते । कमजोर, आशक्त न तो अपनी सुरक्षा रख सकता है न ही अपनी सम्पदा का । शक्ति के अभाव में अर्जित ज्ञान भी लाभ नही मिल पाता । इसी कारण ऋषियों ने ज्ञान सम्पादन ही नहीं शक्ति संचय पर भी जोर दिया है । मानवी अन्तराल में ऐसे शक्ति केन्द्र छिपे पड़े हैं जिनको जागृत किया जा सके तो मनुष्य शक्ति का पुंज बन सकता हे । वे सुषुप्तावस्था में पड़े हैं । 'क्लीं' की महाकाली की उपासना द्वारा इन शक्ति केन्द्रों को जागृत किया जा सकता है । कुण्डलिनी जागरण इस क्लीं शक्ति की आराधना की ही फलश्रुति है । अन्तः जागरण की इस प्रक्रिया से इतनी सामर्थ्य प्राप्त की जा सकती है जितनी कि परमाणु द्वारा भी नहीं हो सकी है । अज्ञान, अभाव एवं अशक्ति के निवारण हेतु त्रिपदा गायत्री की तीन शक्ति धाराओं ह्रीं, श्रीं और क्लीं की उपासना की जानी चाहिए । ज्ञान, सम्पदा एवं शक्ति के तीनों ही अनुदान आद्य शक्ति गायत्री की ही अनुकम्पा से मिलते हैं । इस महाशक्ति का अंचल श्रद्धापूर्वक पकड़ा जा सके तो अज्ञान, अभाव एवं अशक्ति की स्थिति ही समाप्त हो जाय, ज्ञान, वैभव एवं सामर्थ्य की त्रिवेणी साधक में फूट पड़े । (गायत्री महाविद्या का तत्वदर्शन पृ. 1.23)
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३. महापुरुषों द्वारा गायत्री का महिमागान .......

हिन्दू धर्म में अनेक मान्यतायें प्रचलित हैं । विविध बातों के सम्बंध में परस्पर विरोधी मतभेद भी हैं , पर गायत्री मंत्र की महिमा, एक ऐसा तत्त्व है जिसे सभी ने, सभी सम्प्रदायों ने, सभी ऋषियों ने एक मत से स्वीकार किया है ।
अथर्ववेद १९-७१-१ में गायत्री की स्तुति की गयी है, जिससे उसे आयु, प्राण, शक्ति, कीर्ति, धन और ब्रह्मतेज प्रदान करने वाली कहा गया है ।
विश्वामित्र का कथन है-
'ब्रह्मा जी ने तीनों वेदों का सार तीन चरण वाला गायत्री मंत्र निकाला है । गायत्री से बढ़कर पवित्र करने वाला और कोई मंत्र नहीं है । जो मनुष्य नियमित रूप से तीन वर्ष तक गायत्री जाप करता है, वह ईश्वर को प्राप्त करता है । जो द्विज दोनों संध्याओं में गायत्री जपता है, वह वेद पढ़ने के फल को प्राप्त करता है । अन्य कोई साधना करे या न करे, केवल गायत्री जप से भी सिद्धि पा सकता है । नित्यय एक हजार जप करने वाला पापों से वैसे ही छूट जाता है, जैसे केंचुली से साँप छूट जाता है । जो द्विज गायत्री की उपासना नहीं करता, वह निन्दा का पात्र है ।'
योगिराज याज्ञवल्क्य कहते हैं-
'गायत्री और समस्त वेदों को तराजू में तौला गया । एक ओर षट् अंगों समेत वेद और दूसरी ओर गायत्री, तो गायत्री का पलड़ा भारी रहा । वेदों का सार उपनिषद् हैं, उपनिषद् का सार व्याहृतियों समेत गायत्री है । गायत्री वेदों की जननी है, पापों का नाश करने वाली हहै, इससे अधिक पवित्र करने वाला अन्य कोई मन्त्र स्वर्ग और पृथ्वी पर नहीं है । गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं, केशव से श्रेष्ठ कोई देव नहीं । गायत्री से श्रेष्ठ मंत्र न हुआ, न आगे होगा । गायत्री जप लेने वाला समस्त विद्याओं का वेत्ता, श्रेष्ठि या श्रोतिय हो जाता है । जो द्विज गायत्री परायण नहीं, वह वेदों का पारंगत होते हुए भी शूद्र के समान है, अन्यत्र किया हुआ उसका श्रम व्यर्थ है । जो गायत्री नहीं जानता, ऐसा व्यक्ति ब्राह्मणत्व से च्युत और पापयुक्त हो जाता है ।'
पाराशर जी कहते हैं-
'समस्त जप सूक्तों तथा वेद मंत्रों में गायत्री मंत्र परम श्रेष्ठ है । वेद और गायत्री की तुलना में गायत्री का पलड़ा भारी है । भक्तिपूर्वक गायत्री का जप करने वाला मुक्त होकर पवित्र बन जाता है । वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास पढ़ लेने पर भी जो गायत्री से हीन है, उसे ब्राह्मण नहीं समझना चाहिये ।'
शंख ऋषि का मत है-
'नरक रूपी समुद्र में गिरते हुए को हाथ पकड़ कर बचाने वाली गायत्री ही है । उससे उत्तम वस्तु स्वर्ग और पृथ्वी पर कोई नहीं है । गायत्री का ज्ञाता निस्संदेह स्वर्ग को प्राप्त करता है ।'
शौनक ऋषि का मत है-
'अन्य उपासनायें करें चाहे न करें, केवल गायत्री जप से ही द्विज जीवन मुक्त हो जाता है । सांसारिक और पारलौकिक समस्त सुखों को पाता है । संकट के समय दस हजार जप करने से विपत्ति का निवारण होता है ।'
अत्रि मुनि कहते हैं-
'गायत्री आत्मा का परम शोधन करने वाली है । उसके प्रताप से कठिन दोष और र्दुगुणों का परिमार्जन हो जाता है । जो मनुष्य गायत्री तत्त्व को भली प्रकार से समझ लेता है, उसके लिए इस संसार में कोई सुख शेष नहीं रह जाता है ।'
महर्षि व्यास जी कहते हैं-
'जिस प्रकार पुष्प का सार शहद, दूध का सार घृत है, उसी प्रकार समस्त वेदों का सार गायत्री है । सिद्ध की हुई गायत्री कामधेनु के समान है । गंगा शरीर के पापों को निर्मल करती है, गायत्री रूपी ब्रह्म गंगा से आत्मा पवित्र होती है । जो गायत्री छोड़कर अन्य उपासनायें करता है, वह पकवान छोड़कर भिक्षा माँगने वाले के समान मूर्ख हैं । काम्य सफलता तथा तप की वृद्धि के लिये गायत्री से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है ।'
भारद्वाज ऋषि कहते हैं-
'ब्रह्मा आदि देवता भी गायत्री का जप करते हैं, वह ब्रह्म साक्षात्कार कराने वाली है । अनुचित काम करने वालों के र्दुगुण गायत्री के कारण छूट जाते हैं । गायत्री से रहित व्यक्ति शुद्र से भी अपवित्र है ।'
चरक ऋषि कहते हैं-
'जो ब्रह्मचर्यपूर्वक गायत्री की उपासना करता है और आँवले के ताजे फलों का सेवन करता है, वह दीर्घजीवी होता है ।'
नारदजी कहते हैं-
'गायत्री भक्ति का ही स्वरूप है । जहाँ भक्ति रूपी गायत्री है, वहाँ श्रीनारायण का निवास होने में कोई संदेह नहीं करना चाहिये ।'

वशिष्ठ जी कहते हैं-
'मन्दमति, कुमार्गगामी और अस्थिरमति भी गायत्री के प्रभाव से उच्च पद को प्राप्त करते हैं, फिर सद्गति होना निश्चित है । जो पवित्रता और स्थिरतापूर्वक गायत्री की उपासना करते है, वे आत्म-लाभ प्राप्त करते हैं ।'
उर्पयुक्त अभिमतों से मिलते-जुलते अभिमत प्रायः सभी ऋषियों के हैं । इससे स्पष्ट है कि कोई अन्य विषयों में चाहे अपना मतभेद रखते हों, पर गायत्री के बारे में उन सब में समान श्रद्धा थी और वे सभी अपनी उपासना में उसका प्रथम स्थान रखते थे । शास्त्रों में, ग्रंथों में, स्मृतियों में, पुराणों में गायत्री की महिमा तथा साधना पर प्रकाश डालने वाले सहस्रों श्लोक भरे पड़े हैं । इन सबका संग्रह किया जाए, तो एक बड़ा भारी गायत्री-पुराण बन सकता है ।
वर्तमान शताब्दी के आध्यात्मिक तथा दार्शनिक महापुरुषों ने भी गायत्री के महत्त्व को उसी प्रकार स्वीकार किया है जैसा कि प्राचीन काल के तत्त्वदर्शी ऋषियों ने किया था । आज का युग बुद्धि और तर्क का, प्रत्यक्षवाद का युग है । इस शताब्दी के प्रभावशाली गण्यमान्य व्यक्तियों की विचारधारा केवल धर्म ग्रंथ या परम्पराओं पर आधारित नहीं रही है । उन्होंने बुद्धिवाद, तर्कवाद और प्रत्यक्षवाद को अपने सभी कार्यों में प्रधान स्थान दिया है । ऐसे महापुरुषों को भी गायत्री तत्त्व सब दृष्टिकोणों से परखने पर खरा सोना प्रतीत हुआ है । नीचे उनमें से कुछ के विचार देखियेः-
महात्मा गाँधी कहते हैं-
'गायत्री मंत्र निरंतर जप रोगियों को अच्छा करने और आत्मा की उन्नति के लिये उपयोगी है । गायत्री का स्थिर चित्त और शान्त हृदय से किया हुआ जप आपात्तकाल में संकटों को दूर करने का प्रभाव रखता है ।
लोकमान्य तिलक कहते हैं-
'जिस बहुमुखी दासता के बंधनों में भारतीय प्रजा जकड़ी हुई है, उसके लिये आत्मा के अन्दर प्रकाश उत्पन्न होना चाहिये, जिससे सत् और असत् का विवेक हो, कुमार्ग को छोड़कर श्रेष्ठ मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिले, गायत्री मंत्र में यही भावना विद्यमान है ।'
महामना मदनमोहन मालवीय ने कहा था-
'ऋषियों ने जो अमूल्य रत्न हमें दिये हैं, उनमें से एक अनुपम रत्न गायत्री है । गायत्री से बुद्धि पवित्र होती है । ईश्वर का प्रकाश आत्मा में आता है । इस प्रकाश में असंख्य आत्माओं को भव-बंधन से त्राण मिला है । गायत्री में ईश्वर परायणता के भाव उत्पन्न करने की शक्ति है । साथ ही वह भौतिक अभावों को दूर करती है । गायत्री की उपासना ब्राह्मणों के लिये तो अत्यन्त आवश्यक है । जो ब्राह्मण गायत्री जप नहीं करता, वह अपने कर्तव्य धर्म को छोड़ने का अपराधी होता है ।
कवीन्द्रनाथ-रवीन्द्र टैगोर कहते हैं-
'भारतवर्ष को जगाने वाला जो मंत्र है, वह इतना सरल है कि एक ही श्वास में उसका उच्चारण किया जा सकता है । वह है- गायत्री मंत्र । इस पुनीत मंत्र का अभ्यास करने में किसी प्रकार के तार्किक ऊहापोह, किसी प्रकार के मतभेद अथवा किसी प्रकार के बखेड़े की गुंजाइश नहीं है ।'
योगी अरविन्द-
ने कई जगह गायत्री जप करने का र्निदेश किया है । उन्होंने बताया कि गायत्री में ऐसी शक्ति सन्निहित है, जो महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकती है । उन्होंने कईयों को साधना के तौर पर गायत्री का जप बताया है ।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस का उपदेश है-
'मैं लोगों से कहता हूँ कि लम्बी साधना करने की उतनी आवश्यकता नहीं है । इस छोटी-सी गायत्री की साधना करके देखों । गायत्री का जप करने से बड़ी-बड़ी सिद्धियाँ मिल जाती हैं । यह मंत्र छोटा है, पर इसकी शक्ति बड़ी भारी है ।'
स्वामी विवेकानंद का कथन है-
'राजा से वही वस्तु माँगी जानी चाहिये, जो उसके गौरव के अनुकूल हो । परमात्मा से माँगने योग्य वस्तु सद्बुद्धि है । जिस पर परमात्मा प्रसन्न होते हैं, उसे सद्बुद्धि प्रदान करते हैं । सद्बुद्धि से सत् मार्ग पर प्रगति होती है और सत् कर्म से सब प्रकार के सुख मिलते हैं । जो सत् की ओर बढ़ रहा है, उसे किसी प्रकार के सुख की कमी नहीं रहती । गायत्री सद्बुद्धि का मंत्र है । इसलिये मंत्र है । इसलिये उसे मंत्रों का मुकुटमणि कहा है ।'
जगद्गुरु शंकराचार्य का कथन है-
'गायत्री की महिमा का वर्णन करना मनुष्य की सार्मथ्य के बाहर है । बुद्धि का होना इतना बड़ा कार्य है, जिसकी समता संसार के और किसी कम से नहीं हो सकती । आत्म-प्राप्ति करने की दिव्य दृष्टि जिस बुद्धि से प्राप्त होती है, उसकी प्रेरणा गायत्री द्वारा होती है । गायत्री आदि मंत्र है । उसका अवतार दुरितों को नष्ट करने और ऋत के अभिवर्धन के लिये हुआ है ।'

स्वामी रामतीर्थ ने कहा है-
'राम को प्राप्त करना सबसे बड़ा काम है । गायत्री का अभिप्राय बुद्धि को काम-रुचि से हटाकर राम-रुचि में लगा देना है । जिसकी बुद्धि पवित्र होगी, वही राम को प्राप्त कर सकेगा । गायत्री पुकारती है कि बुद्धि में इतनी पवित्रता होनी चाहिये कि वह राम को काम से बढ़कर समझे ।'
महर्षि रमण का उपदेश है-
'योग विद्या के अन्तर्गत मंत्र विद्या बड़ी प्रबलत है । मंत्रों की शक्ति से अद्भूत सफलतायें मिलती हैं । गायत्री ऐसा मंत्र है, जिससे आध्यात्मिक और भौतिक दोनों प्रकार के लाभ मिलते हैं ।'
स्वामी शिवानंदजी कहते हैं-
'ब्राह्ममुहूर्त में गायत्री का जप करने से चित्त शुद्ध होता है और हृदय में निर्मलता आती है । शरीर नीरोग रहता है, स्वभाव में नम्रता आती है, बुद्धि सूक्ष्म होने से दूरदर्शिता बढ़ती है और स्मरण शक्ति का विकास होता है । कठिन प्रसंगों में गायत्री द्वारा दैवी सहायता मिलती है । उसके द्वारा आत्म-दर्शन हो सकता है ।'
काली कमली वाले बाबा विशुद्धानंदजी कहते थे-
'गायत्री ने बहुतों को सुमार्ग पर लगाया है । कुमार्गगामी मनुष्य को पहले तो गायत्री की ओर रुचि ही नहीं होती, यदि ईश्वर कृपा से हो जाये, तो फिर वह कुमार्गगामी नहीं रहता । गायत्री जिसके हृदय में निवास करती है । उसका मन ईश्वर की ओर जाता है । विषय-विकारों की व्यर्थता उसे भली प्रकार अनुभव होने लगती है । कई महात्मा गायत्री जप करके परम सिद्ध हुए हैं । परमात्मा की शक्ति ही गायत्री है, जो गायत्री के निकट जाता है, वह शुद्ध होकर रहता है । आत्म-कल्याण के लिये मन की शुद्धि आवश्यक है । मन की शुद्धि के लिये गायत्री मंत्र अद्भुत है । ईश्वर प्राप्ति के लिये गायत्री जप को प्रथम सीढ़ी समझना चाहिये ।'
दक्षिण भारत के प्रसिद्ध आत्मज्ञानी सुब्बाराव कहते हैं-
'सविता नारायण की दैवी प्रकृति को गायत्री कहते हैं । आदि शक्ति होने के कारण इसको गायत्री कहते हैं । गीता में इसका वर्णन 'आदित्य वर्ण' कहकर किया गया है । गायत्री की उपासना करना योग का सबसे प्रथम अंग है ।'
श्रीस्वामी करपात्री जी का कथन है-
'जो गायत्री के अधिकारी हैं, उन्हें नित्य-नियमित रूप से जप करना चाहिये । द्विजों के लिये गायत्री का जप अत्यन्त आवश्यक धर्मकृत्य है ।'
सर राधाकृष्णन् कहते हैं-
'यदि हम इस सार्वभौमिक प्रार्थना गायत्री पर विचार करें, तो हमें मालूम होगा कि यह वास्तव में कितना ठोस लाभ देती हैं । गायत्री हम में फिर से जीवन का स्रोत उत्पन्न करने वाली आकुल प्रार्थना है।'
प्रसिद्ध आर्यसमाजी महात्मा सर्वदानंदजी का कथन है-
'गायत्री मंत्र द्वारा प्रभु का पूजन सदा से आर्यों की रीति रही है ।'
ऋषि दयानंद-
ने भी उसी शैली का अनुसरण करके संध्या का विधान तथा वेदों के स्वाध्याय का प्रयत्न करना बताया है । ऐसा करने से अंतःकरण की शुद्धि तथा बुद्धि निर्मल होकर मनुष्य का जीवन अपने तथा दूसरों के लिये हितकर हो जाता है । जितना भी इस शुभ कर्म में श्रद्धा और विश्वास हो, उतना ही अविद्या आदि क्लेशों का ह्रास होता है । जो जिज्ञासु गायत्री का प्रेम और नियमपूर्वक उच्चारण करते हैं, उनके लिये यह संसार-सागर से तरने की नाव और आत्म-प्राप्ति की सड़क है ।
आर्य समाज के जन्मदाता स्वामी दयानंद गायत्री के श्रद्धालु उपासक थे । ग्वालियर के राजासाहब से स्वामी जी ने कहा कि भागवत सप्ताह की अपेक्षा गायत्री पुरश्चरण श्रेष्ठ है । जयपुर में सच्चिदानंद, हीरालाल रावल, घोड़लसिंह आदि को गायत्री जप की विधि सिखलाई थी । मुलतान में उपदेश के समय स्वामी जी ने गायत्री मंत्र का उच्चारण किया और कहा कि यह मंत्र सबसे श्रेष्ठ है । चारों वेदों का मूल यही गुरुमंत्र है । आदिकाल से सभी ऋषि-मुनि इसी का जप किया करते थे । स्वामीजी ने कई स्थानों पर गायत्री अनुष्ठानों का आयोजन कराया था, जिसमें चालीस तक की संख्या में विद्वान् ब्राह्मण बुलाये गये थे । यह जप १५ दिन तक चला था ।
थियोसोफिकल सोसाइटी के एक वरिष्ठ सदस्य प्रो. आर. श्रीनिवास का कथन है-
'हिन्दू धार्मिक विचारधारा में गायत्री को सबसे अधिक शक्तिशाली मंत्र माना गया है । उसका अर्थ भी बड़ा दूरगामी और गूढ़ है । इस मंत्र के अनेक अर्थ होते है और भिन्न-भिन्न प्रकार की चित्तवृति वाले व्यक्तियों पर इसका प्रभाव भी भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है । इसमें दृष्ट और अदृष्ट, उच्च और नीच, मानव और देव सबकों किसी रहस्यमय तन्तु द्वारा एकत्रित कर लेने की शक्ति पाई जाती है । जब इस मंत्र का अधिकारी व्यक्ति गायत्री के अर्थ और रहस्य मन और हृदय को एकाग्र करके उसका शुद्ध उच्चारण करता है, तब उसका सम्बंध दृश्य सूर्य में अन्तर्निहत महान् चैतन्य शक्ति से स्थापित हो जाता है । वह मनुष्य कहीं भी मंत्रोच्चारण करता है, पर उसके ऊपर तथा आस-पास के वातावरण में विराट् 'आध्यात्मिक प्रभाव' उत्पन्न हो जाता है । यही प्रभाव एक महान् आध्यात्मिक आश्शीर्वाद है । इन्हीं कारणों से हमारे पूर्वजों ने गायत्री मंत्र की अनुपम शक्ति के लिये उसकी स्तुतियाँ की है ।'
इस प्रकार वर्तमान शताब्दी के अनेकों गणमान्य बुद्धिवादी महापुरुषों के अभिमत हमारे पास संगृहीत हैं । उन पर विचार करने से इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि गायत्री उपासना कोई अंधविश्वास, अंध परम्परा नहीं है; वरन् उसके पीछे आत्मोन्नति करने वाले ठोस तत्त्वों का बल है । इस महान् शक्ति को अपनाने का जिसने भी प्रयत्न किया है, उसे लाभ मिला है । गायत्री साधना कभी निष्फल नहीं जाती ।
(गायत्री महाविज्ञान संयुक्त संस्करण पृ. सं. १६)


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४. गायत्री ही कामधेनु है......


पुराणों में उल्लेख है कि सुरलोक में देवताओं के पास कामधेनु गौ है, वह अमृतोपम दूध देती है जिसे पीकरदेवता लोग सदा सन्तुष्ट, प्रसन्न तथा सुसम्पन्न रहते हैं, इस गौ में यह विशेषता है कि उसके समीप कोईअपनी कुछ कामना लेकर आता है, तो उसकी इच्छा तुरन्त पूरी हो जाती है कल्पवृक्ष के समान कामधेनु गौभी अपने निकट पहुँचने वालों की मनोकामना पूरी करती है

यह कामधेनु गौ गायत्री ही है इस महाशक्ति की जो देवता, दिव्य स्वभाव वाला मनुष्य उपासना करता है वहमाता के स्तनों के समान आध्यात्मिक दुग्ध धारा का पान करता है, उसे किसी प्रकार कोई कष्ट नहीं रहता आत्मा स्वतः आनंद स्वरूप है आनंद मग्न रहना उसका प्रमुख गुण है दुःखों के हटते और मिटते ही वहअपने मूल स्वरूप में पहुँच जाता है देवता स्वर्ग में सदा आनंदित रहते हैं मनुष्य भी भूलोक में उसी प्रकारआनन्दित रह सकता है, यदि उसके कष्टों का निवारण हो जाए गायत्री कामधेनु मनुष्य के सभी कष्टों कासमाधान कर देती है

  • त्रिविध दुखोका निवारण
समस्त दुःखों के कारण तीन हैं- (1) अज्ञान (2) अशक्ति (3) अभाव । इन तीनों कारणों को जो जिस सीमा तक अपने से दूर करने में समर्थ होगा, वह उतना ही सुखी बन सकेगा ।
अज्ञान के कारण मनुष्य का दृष्टिकोण दूषित हो जाता है, वह तत्वज्ञान से अपरिचित होने के कारण उल्टा-पुल्टा सोचता है और उल्टे काम करता है, तदनुसार उलझनों में अधिक फँसता जाता है और दुःखी बनता है । स्वार्थ, भोग, लोभ, अहंकार, अनुदारता और क्रोध की भावनायें मनुष्य को कर्तव्यच्युत करती हैं और वह दूरदर्शिता को छोड़कर क्षणिक क्षुद्र एवं हीन बातें सोचता है तथा वैसे ही काम करता है । फलस्वरूप उसके विचार और कार्य पापमय होने लगते हैं, पापों का निश्चित परिणाम दुःख है ।
दूसरी ओर अज्ञान के कारण वह अपने, दूसरे के सांसारिक गति-विधि के मूल हेतुओं को नहीं समझ पाता । फलस्वरूप असम्भव आशायें, तृष्णायें, कल्पनायें, किया करता है । इन उल्टे दृष्टिकोण के कारण साधारण-सी, मामूली-सी बातें उसे बड़ी दुःखमय दिखाई देती हैं, जिसके कारण वह रोता-चिल्लाता रहता है । आत्मियों की मृत्यु, साथियों की भिन्न रुचि, परिस्थितियों का उतार-चढ़ाव स्वाभाविक है, पर अज्ञानी सोचता है कि जो मैं चाहता हूँ वही सदा होता रहे, कोई प्रतिकूल बात सामने आवे ही नही, इस असम्भव आशा के विपरीत घटनायें जब भी घटित होती है तभी वह रोता-चिल्लाता है ।
तीसरे अज्ञान के कारण भूलें भी अनेक प्रकार की होती हैं, समीमस्थ सुविधाओं से वंचित रहना पड़ता है, यह भी दुःख का हेतु है । इस प्रकार अनेकों दुःख मनुष्य को अज्ञान के कारण प्राप्त होते हैं ।
अशक्ति का अर्थ है-निर्बलता, शारीरिक मानसिक, सामाजिक, बौद्धिक, आत्मिक निर्बलताओं के कारण, मनुष्य अपने स्वाभाविक, जन्मसिद्ध अधिकारों का भार अपने कंधे पर उठाने में समर्थ नहीं होता, फलस्वरूप उसे उनसे वंचित रहना पड़ता है । स्वास्थ्य खराब हो, बीमारी न घेर रखा हो, तो स्वादिष्ट भोजन, रूपवती तरुणी, मधुर गीतवाद्य, सुन्दर दृश्य निरर्थक हैं, धन, दौलत का कोई कहने लायक सुख उसे नहीं मिल सकता । बौद्धिक निर्बलता हो तो साहित्य, काव्य, दर्शन, मनन, चिन्तन का रस प्राप्त नहीं हो सकता ।
आत्मिक निर्बलता हो तो सत्संग, प्रेम, भक्ति आदि का आत्मानंद दुर्लभ है । इतना ही नहीं निर्बलों को मिटा डालने के लिए प्रकृति का 'उत्तम की रक्षा' सिद्धांत काम करता है ।
कमजोर को सताने और मिटाने के लिये अनेकों तथ्य प्रगट हो जाते हैं । निर्दोष, भले और सीधे तत्व भी उसके प्रतिकूल पड़ते है । सर्दी, जो बलवानों की बल वृद्धि करती है, रसिकों को रस देती है, वह कमजोरों को निमोनियाँ गठिया आदि का कारण बन जाती है । जो तत्व निर्बलों के लिए प्राणघातक है, वे ही बल वालों को सहायक सिद्ध होते हैं । बेचारी निर्बल बकरी को जंगली जानवरों से लेकर जगत्माता भवानी दुर्गा तक चट कर जाती है और सिंह को वन्य पशु ही नहीं बड़े-बड़े सम्राट तक अपने राष्ट-चिन्ह में धारण करते हैं । अशक्त हमेशा दुःख पाते हैं, उनके लिए भले तत्व भी भयप्रद सिद्ध नहीं होते हैं ।
अभाव जन्य दुःख है- पदार्थों का अभाव । अन्न, वस्त्र, जल, मकान, पशु, भूमि, सहायक, मित्र, नध औषधि, पुस्तक, शास्त्र, शिक्षक आदि के अभाव में विविध प्रकार की पीड़ाएँ, कठिनाईयाँ भुगतनी पड़ती हैं । उचित आवश्यकताओं को कुचल कर-मन मारकर बैठना पड़ता है और जीवन के महत्त्वपूर्ण क्षणों को मिट्टी के मोल नष्ट करना पड़ता है । योग और समर्थ व्यक्ति भी साधनों के अभाव में अपने को लुंज-पुंज अनुभव करते हैं और दुःख उठाते हैं ।
गायत्री कामधेनु है जो उसकी पूजा, उपासना, आराधना और अभिभावना करता है वह प्रतिक्षण माता का अमृतोपम दुग्ध-पान करने का आनंद अभावों के कारण उत्पन्न होने वाले कष्टों से छुटकारा पाकर मनोवांछित फल प्राप्त करता है ।
(गायत्री महाविद्या का तत्वदर्शन पृ.सं. 3.1)

  • गायत्री की उपासना के सुनिश्चित परिणाम
आत्म-कल्याण को अपना जीवन लक्ष्य निश्चित करने वाले साधक विभिन्न प्रकार की साधनाओं को अवलम्ब लेकर अभीष्ट दिशा में अग्रसर होते हैं । इसके लिए साधना पथ के पथ पदर्शक गुरु के र्निदेशानुसार अनेक प्रकार के ध्यान, जप, योगाभ्यास, व्रत, संयम आदि किये जाते हैं और अनेकानेक विध विधानों का सहारा लिया जाता है । इन सभी में साधारणतः भिन्नता एवं अनेकता पाई जाती है, पर मूलतः उनमें कोई भेद नहीं है सभी साधनायें यों दिखाई भले ही भिन्न-भिन्न दें, परन्तु इन सभी का उद्भव गायत्री से ही हुआ है । बताया जाता है कि गायत्री से 84 प्रकार के योगों का उद्भव हआ है । देशकाल पात्र की भिन्नता के लिए भिन्न-भिन्न मनोभूमि के साधकों को लिए अलग-अलग प्रकार के साधना विधानों की आवश्यकता पड़ती है, पर मूल तो सबका एक ही है । जितना भी आत्म-ज्ञान एवं आध्यात्मिक साधना विधान है, इस सबका मूल आधार केवल गायत्री ही है ।
इसीलिए प्रायः सभी भारतीय ऋषि मुनियों ने सब साधना, उपासनाओं की मूल गायत्री का ही अवलम्बन लिया है, इतिहास पुराणों से भी पता चलता है कि तप का आरम्भ गायत्री से ही हुआ है विष्णु की नाभि से जो कमल -नलिका निकली, वह गायत्री ही थी सृष्टि-निर्माण से पूर्व ब्रह्माजी को आकाशवाणी द्वारा गायत्री का तप करके सृष्टि-निर्माण की शक्ति पाई । शंकरजी की योगमाया गायत्री ही है । वे इसी महासमाधि में लीन रहते हैं । इस महाशक्ति का जब तीन गुणों में से पदार्पण होता है तो उस पदार्पण से सतोगुणी सरस्वती, रजोगुणी लक्ष्मी और तमोगुणी काली का अवतरण होता है । सविता सूर्य की आत्मा गायत्री ही कही गई है । इसी प्रकार अन्यान्य देव शक्तियों को भी इसी महाशक्ति सागर की तरंगें कहा गया है ।
प्राचीन युग में प्रायः सभी ऋषियों ने इसी महामंत्र के आधार पर अपनी योग-साधनाएँ एवं तपस्यायें की हैं । सप्त ऋषियों को प्रधानता गायत्री द्वारा मिली, बृहस्पति इसी शक्ति की दक्षिणमार्गी साधना करके देव गुरु बने, शुक्राचार्य ने इस महामंत्र का वाममार्गी मार्ग अपनाया और वे असुरों के गुरु हुए । साधारण ऋषि, मुनि उन्नति करते हुए महर्षि एवं देवर्षि का पद प्राप्त करते थे तो इस उत्कर्ष का मूल आधार गायत्री ही रहती थी ।
वशिष्ठ याज्ञवल्क्य, अत्रि, विश्वमित्र, पराशर, भारद्वाज, गौतम, व्यास, शुकदेव, नारद, दधीचि, वाल्मीक, च्यवन, शख, लोमस, तैत्तरेय, जाबालि, शृंङ्गी, उदृदालक, वैशम्पायन, दुर्वासा, परशुराम, पुलस्त्य, दत्तात्रेय, आगस्त्य, सनत्कुमार, कणव, शौनक आदि
ऋषियों के जीवन वृत्तांत जिन्होंने पढ़े हैं वे जानते है कि उनकी सहायक ,शक्तियों जिस आधार शिला पर अवस्थित थीं- वह गायत्री है । इन ऋषियों ने अपने ग्रंथों में गायत्री की मुक्त कण्ठ से एक स्वर में महिमा गाई है और बताया है कि आत्मा को परमात्मा बनाने वाली, नरक से स्वर्ग पहुँचाने वाली, तुच्छ को महान् बनाने वाली शक्ति गायत्री ही है ।
गायत्री साधना का मार्ग सबके लिए अभी भी खुला है । इस साधना को अपनाकर हर कोई अपना कल्याण कर सकता है ।
उचित तो यही है कि सभी साधनाओं की मूल गायत्री उपासना को ही अपना इष्ट बनाया जाय, क्योंकि अन्य उपासनाओं के साथ गायत्री उपासना तो अनिवार्य रूप से करनी ही पड़ती है । शास्त्रों में कहा गया है कि गायत्री उपासना के बिना अन्य उपासनायें फलवती नहीं होती फिर क्यों न एक मात्र गायत्री का ही अवलम्बन लिया जाय ।
गायत्री उपासना का प्रभाव सर्वप्रथम मनुष्य के मनःक्षेत्र पर पड़ता है । इससे कुविचार दूर होते हैं, दुष्कर्मों से घृणा उत्पन्न होती है, आत्म-निरीक्षण में अभिरुचि होती है तथा अपने भीतर जो-जो दोष दुर्गुण होते हैं उन्हें उपासक ढूँढ़-ढूँढ़ कर तलाश करता है, उनकी हानियों को समझता है और उन्हें त्यागने को तत्पर हो जाता है । इस प्रकार को अपना वर्तमान जीवन निष्पाप बनाने की प्रेरणा मिलती है । जैसे-जैसे यह पवित्रता बढ़ती है, उसी अनुपात में पूर्व जन्मों के दुष्कृत संस्कार भी घटने और नष्ट होने लगते हैं । इसीलिए गायत्री को पाप नाशिनी, मोक्षदायिनी और कल्याणकारी कहा गया है । यथा-
गायत्र्या परमं नास्ति देवि येत न पावनम् ।
हस्तत्राण प्रदा देवी पततां नरकार्णवे॥
(शंखस्मृति अ. 12/15)
नरक रूपी समुद्र में गिरते हुए को हाथ पकड़कर बचाने वाली गायत्री के समान पवित्र करने वाली वस्तु, इस पृथ्वी पर तथा स्वर्ग में कोई नहीं हैं ।

धर्मोंन्नतिमधर्मस्य नाशनं जनहृछुचिम्
मांगल्ये जगतो माता गायत्री कुसनात्सदा॥

धर्म की उन्नति अधर्म का नाश, भक्तों के हृदय की पवित्रता तथा संसार का कल्याण गायत्री माता करें

गायत्री जान्ह्नवी चोमे सर्व पाप हरे स्मृतो ।
गायत्रीच्छन्दसां माता-माता लोकस्य जान्ह्नवी॥

गायत्री गंगा यह दोनों ही सब पापों का नाश करने वाली हैं गायत्री को वेद माता और गंगा का लोक माता कहते हैं।

गायत्रीयो जपेन्नित्यं स न पापेन लिप्यते ।
(हरितास्मृति /43)
जो गायत्री का नित्य नियमित जप करता है, वह पापों में लिप्त नहीं होता

गायत्री पावनी जप्त्वा ज्ञात्वा याति परां गतिम् ।
न गायत्री विहीनस्य भद्रमत्र पात्र च॥

अर्थात- परम पावनी गायत्री का श्रद्धापूर्वक जप करके साधक परम गति को प्राप्त करता है गायत्री रहित का तो इस लोक में कल्याण होता है परलोक में

गायत्री जाप्य निरतो मोक्षोपाचं च विंदति ।

अर्थात्- गायत्री मंत्र का जप करने वाला मोक्ष का प्राप्त करता है !

परांसिद्धिमवाप्नोति गायत्री मुत्तमां पठेत् ।

गायत्री का जप करने में परा सिद्धि प्राप्त होती है

गायत्री महामंत्र की उपासना से उत्पन्न आध्यात्मिक शक्ति से मनुष्य लौकिक जीवन पर भी महत्त्वपूर्ण प्रभावपड़ता है और उसकी अनेकों आपत्तियों तथा कठिनाइयों का समाधान होकर सुख, समृद्धि , सौभाग्य, सफलता एवंउन्नति के अवसर प्राप्त होते हैं उपासकों के अनुभवों से भी यह प्रत्यक्ष है और शास्त्र वचनों से भी इसकी पुष्टि होतीहै
एहिकामुष्यिकं सर्व गायत्रीं जपतो भवेत । (अग्नि पुराण)
अर्थात् गायत्री जप से सभी सांसारिक कामनायें पूर्ण होती है
शास्त्रों में गायत्री को कामधेनु कहा गया है कुन्ती ने इसी कामधेनु के अनुग्रह से देव सन्तानें प्राप्त की थीं इससंदर्भ में महाराजा पाण्डु और उनकी पत्नी कुन्ती का संवाद देवी भागवत में इस प्रकार आता है-
इत्यार्कण्य तदा प्राहकुन्ती कमलोचनम् ।
सुतमुत्पादयाशु त्वं मुनि गत्वा तपोन्वितम्॥
त कुन्ती वचनं प्राह मम मन्त्रोऽस्ति कामदः ।
दत्तो दुर्वाससा पूर्व सिद्धिदः सर्वथा प्रभो॥
निमन्त्रयेऽहं यं देवं मंत्रेणानेन पार्थिव । आगच्छेत्सर्वथाऽसौ मम पराश्व निमंत्रितः॥
(देवी भागतव)
महाराजा पाण्डु ने अपनी पत्नी कुन्ती से कहा तुम किसी तपोनिष्ठ मुनि की शरण में जाकर एक सन्तान प्राप्त करो
यह सुनकर कुन्ती ने कहा-दुर्वासा ऋषि का दिया हुआ एक सर्व कामनापूर्ण करने वाला कामधेनु जैस मंत्र मुझे ज्ञातहै
सावित्री सत्यवान् के कथानक में सावित्री को गायत्री का प्रतीक और उत्कृष्ट जीवन जीने वाले साधक को सत्यवान्के रूप में निरूपित किया गया है गायत्री हर किसी को वरण नहीं करती, हर किसी को मृत्यु के मुख से नहीं छुड़ाती इसके लिए साधक को सत्यनिष्ठा होना चाहिए
सत्यवान् होना सच बोलना तक ही सीमित नहीं है वरन् उसका संयमी, तपस्वी, एवं परमार्थ प्रयोजनों में संलग्नरहना भी आवश्यक है सावित्री सत्यवान् का विवाह किस कारण हुआ? उन्होंने रूप, वस्त्र, धनवान, विद्यावानों कीउपेक्षा करके मात्र तपस्वी का वरण क्यों किया, इसका उल्लेख महाभारत के वनपर्व में मिलता है इसमें साधक मेंसत्यवान के गुण होने का वर्णन है तपस्वी पिता के तपस्वी पुत्र के रूप में ही सत्यवान् की चर्चा है
तस्य पुत्रः पुरे जातः संवृद्धश्च तपोवने ।
सत्यवाननुरूपो मे भर्तेति मनसा वृत्तः॥

उनके एक पुत्र हैं, सत्यवान, जो पैदा तो नगर में हुए हैं, परन्तु उनका पालन-पोषण एवं संवर्धन तपोवन में हुआ है।वे ही मेरे योग्य पति हैं उन्हीं को मैंने मन ही मन वरण किया है
(गायत्री महाविद्या का तत्वदर्शन पृ।सं.3.15)
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५. गायत्री का ब्राम्हवर्चस.....

आत्मा में सन्निहित ब्रह्मवर्चस् का जागरण करने के लिए गायत्री उपासना आवश्यक है । यों सभी के भीतर सत्-तत्व बीज रूप में विद्यमान है पर उसका जागरण जिन तपश्चर्याओं द्वारा सम्भव होता है, उनमें गायत्री उपासना ही प्रधान है । हर आस्तिक को अपने में ब्रह्म तेज उत्पन्न करना चाहिए । जिसमें जितना ब्रह्म-तत्त्व अवतरित होगा, वह उतने ही अंशों में ब्राह्मणत्व का अधिकारी होता जायेगा ।
जिन्होंने आदर्शमय जीवन का व्रत लिया है, व्रतबंध, यज्ञोपवीत धारण किया है, वे सभी व्रतधारी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अपनी आत्मा में प्रकाश उत्पन्न करने के लिए गायत्री उपासना निरन्तर करते रहें, यही उचित है । जो इस कर्तव्य से च्युत होकर इधर-उधर भटकते हें, जड़ को सींचना छोड़कर पत्ते धोते फिरते हैं, उन्हें अभीष्ट लक्ष्य प्राप्त करने में विलम्ब ही नहीं, असफलता का भी सामना करना पड़ता है ।
साधना शास्त्रों में निष्ठावान भारतीय धर्मानुयायियों (द्विजों) को एक मात्र गायत्री उपासना का ही निर्देश किया गया है। उसमें वे अपना ब्रह्मवर्चस् आशजनक मात्रा में बढ़ा सकते है और उस आधार पर विपन्नता एवं आपत्तियों से बचते हुए, सुख-शान्ति के मार्ग पर सुनिश्चित गति से बढ़ते रह सकते हैं । द्विजज्व का व्रत-बंध स्वीकार करते समय हर व्यक्ति को गायत्री मंत्र की दीक्षा लेनी पड़ती है, इसलिए उसे ही गुरुमंत्र कहा जाता रहा है ।
पीछे से अंधकार युग में चले सम्प्रदायवाद ने अनेक देवी-देवता, मंत्र और उनके उपासना विधान गढ़ डाले और लोगों को निर्दिष्ट मार्ग से भटककर भ्रम-जंजालों में उलझा दिया । फलतः अनादि काल से प्रत्येक भारतीय धर्मानुयायी की निर्दिष्ट उपासना पद्धति हाथ से छूट गई और आधार रहित पतंग की तरह हम इधर-उधर टकराते हुए अधःपतित स्थिति में जा पहुँचे ।
उस तथ्य को दूरदर्शी शास्त्रकारों ने समझा है और सचेत किया है कि वे निरर्थक भटकने वाले भ्रम-जंजाल को समझें और भ्रान्तियों से निकलकर यदि उपासना करनी है तो समर्थ एवं सनातन उपासना पद्धति-गायत्री का आश्रय लें । सही मार्ग पर चलने से ही सही परिणाम निकल सकते हैं । अन्यान्य देवताओं का आराधन कुछ क्षणिक प्रयोजन भले ही सिद्ध करे जीवन लक्ष्य को प्राप्त करा सकने में समर्थ नहीं हो सकता । देवी भागवत में इस तथ्य पर यों प्रकाश डाला गया है-
एषा निष्ठा दुर्लभा मत्तर्यबुद्धौ तस्माल्लोके वैष्णवाः शाम्भवाश्च । भिन्नं भिन्नं मार्गमास्थाय वेदं क्षामं कुर्वन्त्या स्तिक छद्मने मे॥ 17॥
पक्षि द्वन्द्वं विद्यते स्वस्यं देहो भोक्तारं सा ध्यान माचष्ट एतत् । यावत् क्षीणा भोक्तता स्यात्ततस्तु ज्ञात्वा ब्रूयाह ब्रह्मतां स्वस्य विद्वान॥18॥
गायत्र्यर्थ ने विजानाति कश्चिज्ञस्मादन्य देवमाद द्विजाऽपि । ज्ञिातश्चेत्सर्ववादस्य शान्र्ितमुक्तिर्हस्ते गायमानस्य मन्त्रम्॥19॥
भस्मान्तं चेद्विश्च मेतत् समस्तं भसमोद्भूतं भस्म संभासते च । तस्माद ब्रह्म प्राहुराद्यै र्वचोर्भिवेदा स्तस्माद्भस्म लिंग द्विजानाम् । इति शंकाराचाय्र्याभिप्रायः कृष्ण भिक्षुणा । वर्णितस्ते न गायत्री विभूत्या सहनन्दतु॥ 21॥
अर्थ- मानवों की बुद्धि में इस प्रकार की निष्ठा अत्यतम दुर्लभ होती है । इसी कारण से लोक में शैव और वैष्णव आदि विभिन्न मतानुयायी लोग हो गये हैं । इस प्रकार से भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के मार्ग में समास्थित होकर आस्तिक बनने के छद्म से मेरे वेद-मार्ग को दुर्बल किया करते हैं॥ 17॥
किसी भी मत एवं सम्प्रदाय का पक्ष जब ग्रहण कर लिया जाता है तो अन्य लोगों में एक साथ एक प्रकार का द्वन्द्व छिड़ जाता है । अपने देह में वह वेद जननी भोक्ता के ध्यान को आकर्षित करती है कि जिस प्रकार यह भोक्ता क्षीण हो जाती है, तभी फिर ज्ञान प्राप्त करके विद्वान् पुरुष अपनी ब्रह्मता को कहे । गायत्री के अर्थ को सामान्य या कोई भी नहीं जानता है, इसी कारण से द्विज भी जिसने गायत्री की दीक्षा से ही द्विजत्व का लाभ प्राप्त किया है, अन्य देव को कहा करते हैं ।
अर्थात् गायत्री को परमाध्या सर्वोपरि विराजमान न मानकर अन्य देवों की उपासना किया करते हैं । यदि गायत्री के अर्थ का ज्ञान हो जावे तो फिर सब तरह के विवादों की शांति हो जाया करती है । गायत्री मन्त्र का जो गायन करता है, उसका मोक्ष प्राप्त कर लेना तो फिर उसी के हाथ में रहा करता है॥ 18-19॥
यदि भस्मान्त हो तो यह समस्त विश्व ही भस्म से उद्भव प्राप्त करने वाला है और इसमें भस्म ही संभासित होती है । इसी से वेदों ने प्राथमिक वचनों से ब्रह्म को बतलाया है । इसीलिये द्विजों का चिह्न ही भस्म होता है । यदि स्वामिपाद भगवान श्री शंकाराचार्य जी का अभिप्राय है, जिसकी कृष्ण भिक्षु ने वर्णन किया है । इससे गायत्री माता की विभूति के साथ यह अभिनन्दित होवे ।
मन्तैः किं तैर्य प्रतीक्ष्येत देवी गात्र्ययम्बा सम्प्रवेष्टं द्विजेषु । देवैः कि त्तैरग्निना पुष्टिमदि्भ स्तस्मा द्भस्मोद्भषितैः सा निषेव्या॥ 8॥
दत्तं भस्म श्री त्रिपादावयैतंत्र्यङ्घरग्नेः शेष रूपं स्वरूपम् । तस्माद्भस्मं प्रोच्यते भासच्च भूतिर्गायत्र्यंवयैक्या त्रिपुण्ड्रम्॥ 9॥
शैवोऽन्यो वा यां विना किं द्विजः स्याच्छैवोऽन्यो वा दीक्षया वेदमातुः तस्माच्छैवो वैष्णोऽन्येषु गण्यो गायत्र्याप्ता ब्रह्मता वेदमान्या॥ 10॥
भेदापोहव्यावृतिं सा विभर्त्ति ध्यानैभिन्नैर्ध्यान निष्ठैक वेद्याम् । तस्मान्मामान्यत्र संयान्ति सार्वाण्यस्या निष्ठा शाम्भवी वैष्णवी चाः॥ 11॥
अर्थ- उन मंत्रों से क्या लाभ है जिनके द्वारा द्विज गणों में माता गायत्री को सम्प्रवेश करने के लिये प्रतीक्षा की जावे । उन देवों के सेवन से भी क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है, जो अग्नि के द्वारा पुष्टि वाले हों और उसी से भस्म के द्वारा विभूषित होकर उस गायत्री देवी का निवेषण किया जावे॥ 8॥
श्री त्रिपादाम्बा के द्वारा ही दी हुई भस्म है, जो तीन चरणों वाली अग्नि का शेष स्वरूप है । माता गायत्री के ऐक्य से ही उस भासमान से वह भस्म त्रिपुण्ड की विभूति कही जाती है॥ 9॥
चाहे कोई अन्य शैव हो किन्तु वह उस वेदमाता के बिना क्या कभी द्विजत्व का लाभ कर सकता है, अर्थात् शिव की उपासना से भी गायत्री के बिना द्विजत्व नहीं मिल सकता है । चाहे कोई शैव हो या वैष्णव हो, दोनों देवों में से किसी भी एक की उपासना करने वाला क्यों न हो उसकी वेदमाता की दीक्षा से ही गणना की योग्यता होती है । वेदमान्य ब्रह्मता तो माता गायत्री के द्वारा ही प्राप्त होती है॥ 10
यही वेद जननी गायत्री भेदोपोह को धारण किया करती है अर्थात भेद को दूर करने वाली है । जो ध्यान निष्ठा की एक वेदी में भिन्न ध्यानों के द्वारा किया करती है । इसी से यहाँ पर समस्त नाम इसकी शाम्भवी वैष्णवी निष्ठा को प्राप्त किया करते हैं ।
लोकस्थास्ते विष्णु रुद्रादि देवाः कैश्चित्कामैः कैश्चिदेवाधिकारैः । गायत्र्यास्तां मर्त्तयः सेवानीया गायत्र्यां ते सविताः सम्भ्रमेण ।
अर्थ- विष्णु और रुद्र आदि समस्त देवगण लोकों में रहने वाले हैं । उनमें कुछ कामनाओं को पूर्ति करने की शक्ति तथा कतिपय कुछ अधिकार रहते हैं । वे सभी गायत्री की ही मूर्तियाँ हैं । जो सेवन के योग्य हैं । गायत्री में वे सम्भ्रम से ही सेवित होती हैं ।
ब्रह्मत्वं चेदाप्तुकामोऽस्युयास्व गायत्रीं चेल्लोककामोऽन्यदेवम् कामो ज्ञातः क्वीय पाद प्रवृत्तया वादः को वा तृप्ति हीने प्रवृत्तिः॥ बुद्धेः साक्षी बुद्धिगम्यो जयादौ गायत्र्यर्थः साऽनघो वेद सारः तद ब्रह्मैव ब्रह्मा तोपासकस्याप्येवं मंत्रःकोऽस्ति तंत्रे पुराणै॥ 13॥
जात्यश्व3 किं जातिमाप्तुं सकामो गत्यभ्यासात्स्यष्टता मेति जातिः । ब्रह्मत्वाप्तौ कः प्रयासो द्विजा नां यद गायत्र्या व्यज्यते चाष्टमेऽब्दे॥ 14॥
ब्रह्मत्वस्य स्थापनार्थ प्रविष्टा गायत्रीयंतावतास्य द्विजत्वम् । कर्ण द्वारा ब्रह्म जन्म प्रदानायुक्तो वेदे ब्राह्मणो ब्राह्मनिष्ठः॥ 16॥
अर्थ- यदि किसी को ब्रह्मणत्व की प्राप्ति करने की इच्छा है तो उसको वेदमाता गायत्री की ही इच्छा हे तो उसको वेदमाता गायत्री की ही उपासना करनी चाहिये । यदि किसी लोक विशेष के प्राप्त करने की इच्छा होतो अन्य देवों के उपासना करो । अपने चरणों में प्रवृत्ति करने से ही तृप्तिहीन होता है, उसी की प्रवृत्ति होती है । इसमें कोई भी वाद नहीं है ।
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. कुण्डलिनी योग......

ब्रह्मशक्ति का केन्द्र ब्रह्मलोक और जीव शक्ति का आधार भू लोक है । दोनों ही काया के भीतर सूक्ष्म रूप से विद्यमान हैं । भूलोक जीव संस्थान मूलाधार चक्र है । मूलाधार अर्थात् जननेन्द्रिय मूल । प्राणी इसी स्थान की हलचलों और संचित सम्पदाओं के कारण जन्म लेते हैं । इसलिए सूक्ष्म शरीर में विद्यमान उस केन्द्र का उद्गम स्थान मूलाधार चक्र कहा गया है । कुण्डलिनी शक्ति इसी केन्द्र में नीचा मुँह किये मूर्च्छित स्थिति में पड़ी रहती है और विष उगलती रहती है ।

इस अलंकाल विवेचन में यह बताया गया है कि जीवात्मा का भौतिक परिकर इसी केन्द्र में सन्निहित है । प्रजनन कर्म इसी की सम्वेदनाशीलता की दृष्टि से अति सरस एवं उत्पादन की दृष्टि से आश्चर्यचकित करने वाला एक छोटा-सा किन्तु चमत्कारी अनुभव है । इसे कुण्डलिनी शक्ति का सर्वविदित प्रतिफल कह सकते हैं ।वस्तुतः प्रकृति शक्ति का यह कुण्डलिनी केन्द्र, मूलाधार की भौतिक क्षमता का मानवीय उद्गम कहा जा सकता है ।

जिस प्रकार ब्रह्म सत्ता का प्रत्यक्षीकरण ब्रह्म लोक में होता है, ठीक उसी प्रकार प्रकृति की प्रचण्ड शक्ति का अनुभव इस जननेन्द्रिय क्षेत्र के कुण्डलिनी केन्द्र में किया जा सकता है । शारीरिक समर्थता, द्वारा सज्जनता और संवेदनात्मक सरलता, की तीनों उपलब्धियाँ इसी शक्ति केन्द्र के अनुदानों द्वारा प्राप्त की जा सकती हैं ।

कुण्डलिनी जागरण की साधना में मूलाधार शक्ति को जगाने-उठाने और पूर्णता के केन्द्र से जोड़ देने का प्रयत्न किया जाता है । मूलाधार की प्रसुप्त कुण्डलिनी को जगाने तथा उर्ध्वगामी बनाने का प्रथम प्रयास शक्तिचालिनी मुद्रा के रूप में सम्पन्न किया जाता है । उर्ध्वमुखी कुण्डलिनी अग्नि शिखर की तरह मेरुदण्ड मार्ग से ब्रह्म लोक तक पहुँचती है तथा अपने अधिष्ठाता सहस्रार से मिलकर पूर्णता प्राप्त करती है ।

शक्तिचालिनी मुद्रा गंदासंकोचन की एक विशेष पद्धति है जिसे सिद्धांत या मुद्रासन पर बैठकर विशिष्ट प्राण साधना के साथ सम्पन्न किया जाता है । इस प्रक्रिया का समूचे कुण्डलिनी क्षेत्र पर प्रभाव पड़ता है जिससे उस शक्ति स्रोत के जागरण और उर्ध्व गमन के दोनों उद्देश्य पूरे हो सकें । इस प्रयास से उत्पन्न हुई उत्तेजना का सदुपयोग करने वाले अनेक असाधारण काम सम्पन्न कर पाते हैं ।
(गायत्री महाविद्या का तत्वदर्शन पृ.11.14-15)
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